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तृतीया
तत्र:
वं दर्शयत ३३॥
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प्रभु
सुरेन्द्रस्तं देवं भूपाङ्गणे समारोप्य अन्वयार्थ - ततः = उसके बाद, सुरेन्द्र = देवेन्द्र, तं = उन, देवं को श्रावस्तिपुरं = श्रावस्तीपुर में आनयत् = लाया, (च और), (देवं = प्रभु को ) भूपाङ्गणे = राजा के आंगन में, समारोप्य = समारोपित करके, (सः = उसने). ताण्डवं = ताण्डव नृत्य, समदर्शयत् = दिखाया।
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श्लोकार्थ उसके बाद सुरेन्द्र प्रभु को श्रावस्तीपुर वापिस लाया। उन्हें राजा के आंगन में स्थापित करके उनके सामने ही उसने ताण्डव नृत्य दिखाया ।
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से पूजित होते हुये प्रभु में उसने शुभ लक्षण दिखाये, जो उनके शरीर में गिनने पर एक हजार एक सौ आठ हुये ।
श्रावस्तिपुरमानयत् ।
करके.
प्रसन्नचेतसा कृत्त्वा ततस्तं शम्भवाभिधम् । मातुरङ्के समर्प्यथ सदेवः स्वां पुरीं ययौ ।। ३४ ।। अन्वयार्थ - ततः = उसके बाद, प्रसन्नचेतसा हर्षयुक्त मन से, तं = उन प्रभु को शम्भवाभिधम् = सम्भव नाम, कृत्वा = अथ च = और, मातुः माता की, अङ्के = गोद में, समर्प्य = समर्पित करके, सदेवः = देवताओं सहित, (असौ = वह ). स्वां = अपनी पूरी नगरी को, ययौ = चला गया। श्लोकार्थ - उसके बाद अर्थात् ताण्डव नृत्य करने के बाद हर्षित मन से
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वह इन्द्र प्रभु का सम्भवनाथ नाम निश्चित करके तथा उन्हें माता को सौंपकर अपने देवों सहित अपनी नगरी को चला
गया !
कालेऽथ अजितेशादभूत्तत्र
काले
अन्ययार्थ अथ = अनन्तर अजितेशात् अजितनाथ के समय से, त्रित्रिंशत्कोटिसागरसंमिते = तेतीस करोड़ सागर प्रमाण,
गते
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त्रित्रिंशत्कोटिसागरसंमिते । श्रीशम्भवप्रभुः ।। ३५ ।।
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