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श्री सम्गदशिखर माहात्म्य जयनिर्घोषपूर्वं च तनाहुर्मगुलं परं । देवेशेलक्षणं दिव्यं दिदीपे देवतार्चिते।।३१।। सहस्राष्टशताधिक्यगणिताति शुभानि च । बाह्याभ्यन्तरचिन्हेन बभूवस्तस्य वह्मणि ||३२।। अन्वयार्थ - भूयः = फिर, तद् = उसको, त्रिः = तीन बार, परिक्रम्य =
परिक्रमा करके, युक्तितः = युक्ति से, प्रभुं = प्रभु को, संग्राह्य = लेकर, सुमेरुपर्वतं = सुमेरु पर्वत, गत्वा = जाकर, क्षीरोदवारिभिः = क्षीरसमुद्र के जल से. पूर्णैः = भरे हुये. अष्टोत्तरशतः = एक हजार आठ, कानकः = स्वर्ण से बने, कुंभैः = कलशों से (प्रभोः = प्रभु का) जन्माभिषेचनम् = जन्मभिषेक, चक्रे = किया। च = और, अतिविस्मितः = अत्यधिक आश्चर्यचकित होता हुआ, भक्त्या = भक्ति भाव से, देवं = प्रभु को, अस्तोषयत् = स्तुति से संतुष्ट किया, तत्र = उस अवसर पर. देवेशः = देवेन्द्र, जयनिर्घोषपूर्व = जयकार की घोषणा ध्वनि पूर्वक, परं = उत्कृष्ट, मङ्गलं = मङ्गल वचन, आहुः = बोला। देवतार्चिते = देवताओं द्वारा पूजित प्रभु में, दिव्यं = अत्यधिक कान्तिपूर्ण सुस्पष्ट द्योतित, लक्षणं = लक्षण को, दिदीप = जाहिर किया । च = और, तस्य = उनके. वर्णणि = शरीर में, वाह्याभ्यन्तरचिन्हेन = अन्तरङ्ग बहिरङ्गचिन्ह द्वारा, (तानि = बे), शुभानि = शुभलक्षण, सहस्राष्टशताधिक्य-- मणितानि = एक हजार और एक सौ आठ गिने हुये, बभूवुः
= हुये। श्लोकार्थ - फिर इन्द्र ने उसकी तीन बार परिक्रमा करके तथा युक्ति से
प्रभु को प्राप्त करके, सुमेरु पर्वत पर जाकर वहाँ क्षीरोदधि के जल से भरे हुये स्वर्णनिर्मित एक हजार आठ कलशों से प्रभु का जन्माभिषेक किया और अतिशय आश्चर्य से चकित होते हुये उसने भक्ति भावना से प्रभु की स्तुति की, उन्हें प्रसन्न--संतुष्ट किया तथा इस अवसर पर जयघोष की ध्वनि पूर्वक देवेश ने अत्यंत उत्कृष्ट मङ्गल वचन कहे एवं देवताओं
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