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तृतीया
श्लोकार्थ - एक बार फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में अष्टमी को मृगाक
नक्षत्र में सोलह स्वप्न देखने के बाद अपने मुख में प्रावधः होते हुये गज को देखकर वह रानी आश्चर्य से भर गयी। फिर प्रातः अपने प्रिय के मुख से उनका फल सुनकर प्रमुदित हो
गयी और उस रानी ने अहमिन्द्र को अपने गर्ग में धारण किया। तं देयं गर्भगं पुण्यैः कृत्वा सदम्बिका बभौ ।
अन्तरीकृत्य बालार्क शारदी वा नु चान्द्रका ।।२१।। अन्वयार्थ - पुण्यैः = पुण्यों द्वारा, सा = वह रानी, तं = उस, देवं = देव
को, गर्भगं = गर्भ में रहने वाला, कृत्वा = करके, सदम्बिका = सच्चे अर्थों में माता अर्थात् जिनमाता, अमूत् = हो गयी (यथा = जैसे). (इव = मानो) बालार्क = बाल सूर्य को. अन्तरीकृत्य = अन्दर छिपाकर, शारदी चन्द्रिका = शरद ऋतु
की चन्द्र छटा, बभौ = सुशोभित हुई हो। श्लोकार्थ - अपने पुण्य कर्मों के उदय आ जाने से वह रानी उस देव को
अपने गर्भ में धारण करके सदम्बिका अर्थात् जिनमाता कहलायी और वैसे ही सुशोभित हुई जैसे बाल सूर्य को अपने
अन्दर छिपाने से शरद ऋतु की चन्द्रिका सुशोभित होती है। मार्गमासि ततः शुक्लपञ्चदश्यां मृगाङ्कभे ।
आविरासीत् प्रभुः प्रातः सुषेणायां शुभालये ।।२२।। अन्वयार्थ - ततः = गर्भ में आने के बाद, मार्गमासि = मार्गशीर्ष माह में,
शुक्लपञ्चदश्यां = शुक्लपक्ष की पूर्णिमा के दिन, प्रातः = सवेरे, मृगाङ्कभे = मृगाङ्क नक्षत्र में, प्रभुः = भगवान्. शुभालये = शुभभवन अर्थात् राजप्रसाद में, सुषेणायां = सुषेणा
के गर्भ में से, आविरासीत् = उत्पन्न हुये। श्लोकार्थ - गर्भ में आने के बाद मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा
के दिन प्रातःकाल मृगाङ्क नक्षत्र में प्रमु राजप्रसाद में सुषेणा के गर्भ में से उत्पन्न हुये।