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सम्मइसुत्तं
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साधना नहीं घट सकती है। इससे निश्चित है कि दोनों अवस्थाएँ अभिन्न हैं। अनेक में एकता समायी हुई है।
जाइकुलरूवलक्खणसण्णासंबंधओ अहिगयस्स। बारमादिवियर जस धोisi
जातिकुलरूपलक्षणसंज्ञासम्बन्धेनाधिगतस्य । बालादिभावदृष्ट विगतस्य यथा तस्य सम्बन्धः 445॥
शब्दार्थ-जाइ-जाति; कुल-कुल; रूव-रूपः लक्खण-लक्षण; संण्णा-संज्ञा; संबंधओ-सम्बन्ध से; अहिंगयस्स-झात; बालाइभाव-बालक आदि अवस्था; दिट्ठ-देखें मए; विगयस्स-विगत (विनष्ट); तस्स-उस (पुरुष) का; जह-जैसा; संबंधो-सम्बन्ध (घटित होता है।
जिस प्रकार : भावार्थ-बुढ़ापे में जवानी का किसी भी प्रकार का लगाव न हो, तो पुरुष में भौतिक विषय-वासनाओं से सुखी होने की भावना जाग्रत नहीं होनी चाहिए; किन्तु भावना जगती है, इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि दोनों ही अवस्थाएँ कथंचित् भिन्न हैं; सर्वथा भिन्न नहीं हैं। अतः जाति, कुल, रूप, लक्षण, संज्ञा एवं सम्बन्ध से जाने गए पुरुष में अभिन्नता तथा क्रमशः बीतने वाली बाल्यादि अवस्थाओं से भिन्नता भी सिद्ध होती है।
तेहिं अइयाणागयदोसगुणदुगुंछणब्भुवगमेहि। तह बंधमक्खिसुहदुक्खपत्थणा होइ जीवस्स ॥4611
ताभ्यां अतीतानागतदोषगुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्याम् ।
तथा बन्धमोक्ष-सुख-दुःख-प्रार्थना भवति जीवस्य ||46|| शब्दार्थ-तेहिं-उन दोनों (अवस्थाओं से); अइयाणागय–अतीत (भूतकाल), अनागत (भविष्यत् काल); दोष-दोष; गुण-गण: दुर्मुछण-जुगुप्सा (ग्लानि); अभुवगमेहि-प्राप्त होने से; तह-उसी प्रकार, जीवस्स-जीव के बंधमोक्ख-सुहृदुक्खपत्थणा-बन्ध, मोक्ष, सुख-दुःख (की) अभिलाषा: होती (है)। और : भावार्थ-यदि बचपन से युवावस्था को सर्वथा भिन्न मान लिया जाय, तो याल्यावस्था
1. अ अतीतागापाम, ब अआगामय।