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सम्मइसुत्तं
चरिएण-बचपन के चरित से; लज्जा--लज्जित होता (है); (वैसे ही) अणागयसुप्तोवहाणत्य-भविष्य (की) सुखोपाधि के लिए; गुणपणिहाणं-गुण (गुणों की) अभिलाषा; कुणइ-करता है)।
वर्तमान पर्याय मान ही द्रव्य नहीं : भावार्थ-द्रव्य त्रिकालवतों है। जैसे पूर्ण युवास्था को प्राप्त पुरुष बचपन के दुश्चरित्रों का स्मरण कर लज्जित होता है, वैसे ही वह भविष्य में सख-प्राप्ति की आशा से गणों की अभिलाषा भी करता है। इस प्रकार भूतकालिक दोष-स्मरण से होने वाली ग्लानि और भावी तुख की आशा से उत्पन्न हुई गुण-रुचि ये दोनों चुक्क पुरुष के साथ वर्तमान से भूत और भविष्य का सम्बन्ध जोड़ती है। किन्तु पर्यायार्थिकनय केवल वर्तमानकालवर्ती पर्याय को सत्य मानता है। अतएव द्रव्याधिकनय का कथन है कि यदि वर्तमान पर्याय मात्र ही द्रव्य होता, तो उसे भूतकाल में हुए अपने दोषों का स्मरण, मूतों का पश्चात्ताप नहीं होना चाहिए था; परन्तु यह प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया जाता है कि प्राणी अपने अतीत का स्मरण करता है।
ण य होइ जोव्वणत्थो बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण। ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुज्जइ विभत्ते ॥440
न च भवति यौवनस्थो बालोऽन्योपि लज्जते न तेन । नापि चानागतवयोगुणप्रसाधनं युज्यते विभक्ते ॥14॥
शब्दार्थ-लोव्वणत्यो युवावस्था (में); बालो-यालक; ण-नहीं होइ-होता रहता है); अण्णो -अन्य (मिन्न होने पर); वि-भी; ण-नहीं (ह); तेपण-उस (बालचरित्र) से; लज्जइ-लजाता है, इसी तरह); विभत्ते-विभक्त (अत्यन्त भिन्न होने पर); अणागयवयगुण पसाहणं-भावी आयुष्य (के लिए), गुण-साधना; वि-भी; ण-नहीं; जुज्जड़-घटती है।
वस्तु एक है और अनेक भी : भावार्थ-युवावस्था में पहुँच जाने के पश्चात् फिर बालक नहीं रहता। यद्यपि युवा
और बालक दोनों ही अवस्थाएँ भिन्न हैं, किन्तु इन दोनों में आपस में हार में पिरोये हुए धागे की भाँति सम्बन्ध है। यदि ये दोनों अवस्थाएँ भिन्न हों, तो युवक होने पर व्यक्ति को अपने बालबारेत्रों से लज्जित नहीं होना चाहिए; परन्तु होता ही है। इसी प्रकार युवक और वृद्ध अत्यन्त भिन्न हों, तो भविष्य के आयुष्य के लिए गुणों की
1. ब" थिभत्तो।