________________
78
सम्महसुन
में किए गए अनाचार का स्मरण कर लज्जित नहीं होना चाहिए। परन्तु मनुष्य में अतीत काल के दोष के प्रति ग्लानि तथा भावी गुण के प्रति रुचि देखी जाती है। इसी प्रकार से जीव में बन्ध, मोक्ष, सुख और दुःख की अभिलाषा होती है।
अपणोण्णाणुगयाणं इमं व तं व त्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्धपाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ।।47॥
अन्योन्यानुगतयोरिदं तद्वेति विभजनमयुक्तम् । यथा दुग्धपानीययोः यावन्तो विशेषपर्यायाः ॥471
शब्दार्थ-जह-जिस प्रकार: दुद्धपाणियाणं-दूध-पानी का; विभयणमजुत्त-विभाजन (पृथक्करण) अयुक्त (है); (तह-उसी प्रकार); अण्णोष्णाणुगयाणं-परस्पर ओतप्रोत; जावंत-जितनी; विसेसपम्जाया-विशेष पर्यायें (है); इम-इस (की); व-अथवाः तं-उस (की); ब-या; त्ति-इस प्रकार, विभयणमजुत्त-विभाजन अयुक्त (है)।
जैसे दुग्ध का जल से पृथक्करण नहीं : भावार्थ-जैसे एक स्थान में स्थित दूध और पानी को अलग-अलग करना युक्त नहीं है, उसी प्रकार परस्पर ओतप्रोत जीव और पुद्गल की पर्यायों में विभाग करना योग्य नहीं है।
रूवाइपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सद्धम्मि। ते अण्णोणाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ॥48॥ रूपादिपर्याया ये देहे जीवद्रव्ये शुद्ध। तेऽन्योन्यानुगताः प्रज्ञापनीया भवस्थे ॥48||
शब्दार्थ-देहे-शरीर में; जे-जो; रूवाइपज्जवा-रूपादि पर्यायें (है); सुद्धम्मि-शुद्ध में; जीवदनियम्मि-जीवद्रव्य में; (जे पज्जवा-जो पर्यायें हैं), भवथम्मि-संसारी (जीव) में; ते-घे (पर्याय); अपर्णोण्णाणुगया-परस्पर में मिली हुई, पण्णवणिज्जा-कहनी चाहिए।
जीव और शरीर अभिन्न है तथा भिन्न भी : भावार्थ--शरीर में जो रूप आदि पर्यायें हैं और जो पर्याय विशुद्ध जीव में हैं, वे परस्पर 1. ब" इमं च तं च ति। 2. अ" रूआइएलया।