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सम्म सुत्तं
सिद्धसेन और उनकी रचनाएँ
यद्यपि आचार्य सिद्धसेन के धन के सम्बन्धन विशेष कुछ नहीं है, फिर भी, सामान्यतः यह स्वीकार कर लिया गया है कि जन्म से वे ब्राह्मण थे। वे संस्कृत, प्राकृत, तर्कशास्त्र, तत्त्वविद्या, व्याकरण, ज्योतिष तथा विभिन्न भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। प्रौढ़ावस्था में उनका झुकाव व प्रवृत्ति जैनधर्म की ओर उन्मुख हो गई जो कि उनके गहन तार्किक विश्लेषण एवं अन्तर्दृष्टि का परिणाम थी। अपनी रचनाओं में प्रतिपादित जैन सिद्धान्तों के कारण उन्होंने शुद्ध तर्कशास्त्र के क्षेत्र में एक उत्कृष्ट स्थान बना लिया था ।
डॉ. उपाध्ये के अनुसार सिद्धसेन उस यापनीय संघ के एक साधु थे जो कि दिगम्बर जैनों में एक उप सम्प्रदाय था। उन्होंने दक्षिण भारत की ओर स्थानान्तरण किया था और पैठन में उनकी मृत्यु हुई थी। तथ्यों से यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि वे दिगम्बर परम्परा के अनुयायी थे। दिगम्बर आयमिक साहित्य में सिद्धसेन का नाम उनकी कृति 'सन्मतिसूत्र' के साथ निर्दिष्ट है। इसके साथ ही, सेनगण की पट्टावली में भी उनके नाम का उल्लेख मिलता है। यही नहीं, श्वेताम्बर आचार्यों ने उनके युगपवाद का खण्डन किया है।
जैन साहित्य में विशुद्ध तर्कविद्या विषय पर प्राकृत भाषा में ज्ञात रचनाओं में सर्वप्रथम 'सम्मइसुतं' या 'सन्मतिसूत्र' अनुपम दार्शनिक रचना के कारण आचार्य सिद्धसेन का नाम प्रसिद्ध रहा है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के परवर्ती अनेक विश्रुत जैन विद्वानों ने उनके नाम का सादर उल्लेख किया है।" यथार्थ में वे दर्शनप्रभावक आचार्य के रूप में विश्रुत रहे हैं। यद्यपि उनकी इस रचना का निर्देश 'सन्मतितर्कप्रकरण' नाम से भी किया जाता रहा है, किन्तु इसका वास्तविक नाम 1. उपाध्ये, ए. एन. सिद्धसेना न्यायातार एण्ड अदर वर्क्स, बम्बई, 1971 इन्ट्रोडक्शन, पृ. 17 2. "उत्तं च सिद्ध सेणेण णाम ठपणा" ........ण च सम्मइसुतेण सह विरोहो उसुदर्वसभावणिक्खेवमस्सिदून तप्पउत्तदो । लम्हा-तंगह-चत्रहारणएतु सव्यणिकदा संभवति ि सिद्धं ।" - अवधथला ग्रन्थ 1 . 260-61
3. जैन सिद्धान्त मास्कर, किरण, पृ. 98
4. आ. पूज्यपाद ( येत्तेः सिद्धसेनस्य – जैनेन्द्र व्याकरण, 5, 1, 2) (क्वचिद प्रादुर्भावे वर्तते इति श्रीदत्तमिति सिद्धसेनमिति" - तस्थार्थराजयार्तिक, 1, 15), आ. जिनसेन (बोधयन्ति सतां बुद्धि-सिद्धसेनस्य सूक्तयः - रिबंशपुराण, 4, 50), आ. गुणभद्र (सिद्धसेन कविजयादयिकरूपनरवरांकुरः ।। आदिपुराण । 12), आ. पद्मप्रभमलधारिदेव (सिद्धान्तोष श्रीघवं सिद्धसेनं चन्दे ) सुनि कनकामर (तो सिद्धसेण सुसमंतभट्ट अकलंकदेव सुअल समुद्द. करफण्डचरिउ, 1, 2, ४), कवि हरिषेण (तो वि जिनिंद धम्मअनुसाएं बहुसिरिसिद्धसेण सुपसाए, धर्मपरीक्षा, 1, ३०), भ. यशःकीर्ति (जिगसेोण सिद्धसेण विभयंत परवाइदप्पभंजण कयंत—चन्द्रप्रभचरित), अपभ्रशंकवि द्वितीय धनपाल (सिरिसिद्ध सेण पययण विणोट जिणसेणें विरज- बाहुबलिचरित) इत्यादि ।
तथा - नमः सन्मतयं तस्मै भवम्पनिपातिनाम् ।
सन्मतिर्विवृता येन सुखथामप्रवेशिनी ॥ पार्श्वनाथचरित (याविराज), जो 22
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