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प्रस्तावना
'सम्मइसुत्त है। 'सम्मई' या 'सन्मति' शब्द दिगम्बरों में प्रचलित रहा है जो तीर्थकर महावीर के पाँच नामों में से एक है। इस नाम से भगवान् महावीर का उल्लेख श्वेताम्बर आगम-साहित्य में नहीं मिलता।
__ 'सन्मतिसूत्र' 167 आर्या छन्दों में प्राकृत भाषा में निबद्ध अनेकान्तवाद सिद्धान्त का प्रतिपादक ग्रन्थ है। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त नयों पर आधारित है। अतएव ग्रन्थ-रचना में अनेकान्तवाद के साथ नयों का भी विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण रचना तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें काण्ड कहा गया है। रचना में मूल तत्त्वों की सुन्दर व्याख्या है; जैसे कि लोक में उपलब्ध तत्त्वार्थ स्वयं तीन प्रकार के लक्षण वाले हैं: उत्पाद, व्यय और धौव्य; और यही यथार्थता का सत्य स्वरूप है। यथार्थता का स्वरूप नय और निक्षेप इन दो मूल तत्त्वों के द्वारा स्वीकृत किया जाता है और इनसे ही अनेकान्तवाद सिद्धान्त का निर्माण होता है। जैनधर्म आज तक और आगे भी ‘अनेकान्तवाद' के रूप में निर्दिष्ट होता रहेगा। क्योंकि अनेकान्तवाद इसका प्राण है। 'अनकान्तवाद' शब्द का प्रयोग उस समय के लिए किया जाता है जो अनन्त गुण युक्त है और प्रत्येक तत्त्वार्थ में निहित है तथा जिसका परीक्षण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। इस ग्रन्थ में इस अनेकान्त-विधि का विस्तृत तथा विशद विवेचन किया गया है। ग्रन्थ के प्रथम काण्ड में मुख्य रूप से नय और सप्तभंगी का, द्वितीय काण्ड में दर्शन और ज्ञान का तथा तृतीय काण्ड में पर्याय-गुण से अभिन्न वस्तु-तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। निःसन्देह यह एक ऐसी रचना है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जैन साहित्य पर लक्षित होता है।
अनेक रचनाओं में (लगभग एक दर्जन में) से चार कृतियों को कुछ विद्वान् आ. सिद्धसेन रचित मानते हैं। 'सन्मतिसूत्र' के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, किन्तु तीन अन्य रचनाएँ अब तक विवादग्रस्त हैं-ये तीनों एक ही सिद्धसेन की रचनाएँ है या नहीं ? श्वेताम्बर इन तीनों रचनाओं को भी सिद्धसेन प्रणीत मानते हैं-कल्याणमन्दिरस्तोत्र, न्यायावतार और द्वात्रिंशिकाएँ। इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' के रचयिता आ. कुमुदचन्द्र हैं, जैसा कि अन्तिम पद्य में प्राप्त उनके नाम से प्रमाणित होता है।' पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार की आलोचना ठीक है- "ऐसी स्थिति में 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका' के रूप में जो 'कल्याण मन्दिरस्तोत्र' रचा गया, वह 32 पद्यों का कोई दूसरा ही होना चाहिए: न कि वर्तमान 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र', जिसकी रचना 44 पयों में हुई है और इससे कोई कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिए। इसके सिवाय, घर्तमान 'कल्याण-मन्दिरस्तोत्र' में 'प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पानाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं जो दिगम्बर मान्यता के अनुकूल और
1. जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा ।
ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्त ॥
-श्लो. 11. कल्याणमन्दिरस्तोष