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प्रस्तावना
सम्प्रति यह सविदित है कि पराकाल से आर्यों के इस देश में श्रमण तथा वैदिक दोनों विलक्षण दार्शनिक मत समानान्तर रूप से प्रचलित रहे हैं। विभिन्न उल्लेखनीय हिन्दू-पुराणों तथा बौद्ध-साहित्य के सन्दर्भो से स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण-परम्परा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा भागवत आदि पुराण-साहित्य में मिलता है। श्रमण-परम्परा जैन आगमिक साहित्य में वर्णित व्रस, तपस्या और त्याग का सम्मिश्र परिणाम है, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण कर्म-बन्धनों से निर्मुक्त हो शुद्ध आत्मा का चरम स्थिति को उपलब्ध होना है। इस मत के आगम-ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है जो अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर के युग की लोक-प्रचलित जनभाषा है। आगम-साहित्य लोकोत्तर सहधर्मी संस्कृति एवं सभ्यता का एक चित्र पूर्णतः प्रकाशित करता है।
जैनधर्म की विहित पद्धति अनुभवजन्य है, और इसीलिए यह एक यथार्थवादी दर्शन है। डॉ. भट्टाचार्य ठीक ही आलोचना करते हैं : "दार्शनिक विषयों से सम्बन्धित जैन सिद्धान्त सामयिक आन्दोलन या हठधर्मी नहीं हैं, किन्तु तर्कवितर्क करने वाले अन्य भारतीय सम्प्रदायों की पंक्ति में सम्यक रूप से अवस्थित हैं। इतना ही नहीं, ये उनसे भी अधिक तर्कसिद्ध हैं।"। फिर, प्रो. ए. चक्रवर्ती के शब्दों में जैनधर्म की विचार-प्रणाली असाधारण रूप से आधुनिक यथार्थवाद और विज्ञान के इतने अनुरूप है कि कोई भी उसके पुरातत्त्व के सम्बन्ध में प्रश्न कर उसका परीक्षण कर सकता है। अद्यप्रभृति यह तथ्य निहित है कि ईसा की कई शताब्दियों के पूर्व भारतवर्ष में एक ऐसा मत विकसित था।"
दर्शन के क्षेत्र में विशेषतः आध्यात्मिक शाखा में जैनाचार्यों ने इतना प्रभाव प्रवर्तित किया कि उनका योग-दान आज भी भारतीय तर्कविद्या में विश्रुत तथा सम्मानित है। उनमें ही आचार्य सिद्धसेन मार्गदर्शक थे, जिन्होंने सूत्रों में निबद्ध लघुकाय कृति की रचना कर सम्मान्य भारतीय नैयायिकों तथा करियों में दर्शन व शैली-विज्ञान के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था। 1. भट्टाचार्य, हरिसत्य : रियल्स इन वजन मेटाफिजिश्स, बम्बई, 1966, पृ. 7 १. प्रो. ए. चक्रवर्ती : द रिलीजन ऑब हिंसा, बम्बई, 1957, परिचय, पृ. 11 s. अल्पाक्षरमसन्दिन सारपद् गूदनिर्णयम्। निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ -जयधवला में उत, ग्रन्थ ।, पृ. 134 तथा--सुर गणरकहिदं तहेय पत्तेयबुद्धकहि । सुटकवक्षिणा कहियं अभिण्णदसपुयिकहिदं च ॥
-जयपथला ग्रन्थ ।, गा, 67. पृ. 159; भगवती आराधना, गा. 34