________________
आइरिय-सिद्धसेण-विरइयं
सम्मइसुत्तं
णयकंडयं
सिद्धं सिद्धत्थाणं' ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं। कुसमयविसासणं-सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥३॥ सिद्ध सिद्धार्थानां स्थानमनुपमसुखमुपगतानाम् । कुसमयविशासन-शासन' जिनानां भांजनानाम् ।।
शब्दार्थ-अणोबम-अनुपम; सुह-सुख (क); ठाण-स्थान को; उवगयाणं-प्राप्त (तथा); भवजिणाण-संसार को जीतने वाले जिणाणं-जिनेन्द्र भगवान का; सासणं-शासन; सिद्धत्थाणं--(प्रमाण) प्रसिद्ध अर्थों का; ठाणं-स्थान (है); (और) कुसमय-मिथ्या मत (का); विसाजणं-निवारण करने वाला; सिद्ध-(स्थतः) सिद्ध
जिन-शासन : स्वतः प्रमाण-सिख है: भावार्थ-जो संसार के दुःखों को जीत कर अनुपम सुख को उपलब्ध हो चुके हैं, उन जिनेन्द्र भगवान का प्रमाण-प्रसिद्ध अर्थों का स्थान जिन-शासन स्वतः सिद्ध है। वह मिथ्यामतों का खण्डन करने वाला है। जिन-शासन स्वतः प्रमाण इसलिए है कि वह वीतरागी देव द्वारा प्रकाशित है। कोई भी जीव स्वयं वीतरागी बन कर प्रमाणित कर सकता है। अतः प्रमाण वीतरागता ही है। राग-द्वेष से रहिन अवस्था ही वीतरागता है। विशेष-ग्रन्थ के प्रारम्भ में सिद्ध' शब्द का प्रयोग मंगल सूचक है। ग्रन्ध-कर्ता के नाम का सूचक भी "सिद्ध' शब्द कहा जाता है।
1. ब' सिद्धरण।