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समयपरमत्यवित्थरविहाडजणपज्जुवा सणसणो । आगममलारहियओ जह होइ' तमत्यमुष्णेसु ॥2॥
सम्म
समयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसकर्णः । आगममन्दहृदयो यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये ॥ 2||
सदर्थ आगलगलारपिडोसन (समझने में) बुद्धि (बालों के लिए यह ग्रन्य); समयपरमत्यवित्थर - सिद्धान्त (के) परमार्थ (सत्यार्थ ) विस्तार ( को ): विहाड - प्रकट ( प्रकाशित करने वाला है); जण-- लोग पज्जुवासण- पर्युपासना (भलीभाँति उपासना में) रायण्ण - सावधान; जह-जैसे (जिस तरह से ) : होइ - हो ( जायें); ( वैसे ही ) तमत्थ- मुण्णेसु-उस अर्थ को कहूँगा ।
यह रचना मन्द-बुद्धि वालों के लिए :
भावार्थ अनेकान्तमयी जिनवाणी अति गहन व गम्भीर है। अल्प बुद्धि वाले इसे समझ नहीं पाते। इसलिए उनको समझाने व सावधान करने के लिए जिस तरह से लोग समझ सकें और उपासना कर सकें, वैसे ही विस्तृत आगम-सिद्धान्त को प्रकट करने वाले इस ग्रन्थ को कहूँगा । श्रुत केवलियों के व्याख्यान को इस प्रकार समझाऊँगा कि तत्त्व में अरुचि रखने वाले भी रुचिपूर्वक उसे ग्रहण कर सकें।
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तित्ययरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी'
दव्यट्टियों य पज्जवणयो य सेसा वियप्पा सिं ॥3॥
तीर्थङ्करवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणौ । द्रव्यार्थिकश्च पर्यवनयश्च शेषा विकल्पास्तयोः ॥3॥
शब्दार्थ - तित्ययरवयण - तीर्थंकर (कं) वचन ( बचनों का) : संगह-संग्रह (सामान्य और); विसेस -: पत्थार-प्रस्तार (के): मूलवागरणी - मूल व्याख्याता दव्खडियो- द्रव्यार्थिक ( नय); य - और पज्जयणयो- पर्यायार्थिक नय (मूल में दो नय हैं; य-और; सेसा - शेष (नय): सिंउन (दोनों नयों के); वियप्पा - विकल्प (हैं, भेद हैं)।
तीर्थकर वाणी : सामान्य विशेषात्मक :
भावार्थ - तीर्थकरों के वचन सामान्य विशेषात्मक हैं। वे सामान्य रूप से द्रव्य के
ॐ तयन्नी व सही।
ब" पोते ।
1.
2.
५. त' मूलवागरणा ।