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सम्मइसुत्तं होती है-"श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों को माया प्राका अधारधी, पर इस प्रन्धक: प्राकृत महाराष्ट्री है जो शौरसेनी का एक उपभेद है। इस भाषा का प्रयोग ई. सन की चौथी-पाँचवी शताब्दी से हुआ है। नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनी के प्रभाव से ही उक्त महाराष्ट्री का भेद विकसित हुआ है।" अतएव यह सिद्ध हो जाता है कि 'सम्मतिसूत्र' की भाषा प्राकृत महाराष्ट्री है। प्रस्तुत संस्करण
यद्यपि "सन्मतिसूत्र" के, टीका सहित तथा बिना टीका के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु कोई भी जनोपयोगी संस्करण आज तक प्रकाशित नहीं हुआ था। अतः इस कमी को पूरा करने के लिए, भाषा और भाव की दृष्टि से सरलता तथा स्पष्टता को लिए हुए विद्यार्थियों एवं जनता के लिए उपयोगी यह संस्करण प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. ए. एन. उपाध्ये के संस्करण पर आधारित है जो 'अ' और 'ब' इन दो प्रतियों के आधार पर किया गया था और जिसका प्रकाशन जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से हो चुका है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत संस्करण में एक हस्तलिखित प्रति का भी उपयोग किया गया है जो तेसपंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर (राजस्थान) में सुरक्षित है। इस प्रति की अनुक्रम संख्या 1899 है और इसमें 578 पाना हैं। यह हस्तलिखित प्रति तत्त्वबोधविधायिनी' टीका से युक्त है। प्रस्तुत संस्करण में इसका उल्लेख 'स' प्रति के रूप में किया गया है। इनके अतिरिक्त पं. सुखलाल और बेचरदास के संस्करण का भी उपयोग 'द' रूप में किया गया है। सम्पादन करते समय शब्द-रचना को ध्यान में रख कर मूल ग्रन्य की रचना-संघटना के अनुरूप ही पाठों को ग्रहण किया गया है। इससे मूल रचनाकार की रचना की एकता की सुरक्षा बनी रहेगी। इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियों उत्तर भारत में उपलब्ध होती हैं, जिससे यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि आचार्य सिद्धसेन मूल में उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। आभार-ज्ञापन
सर्वप्रथम मैं आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज के प्रति अपनी श्रद्धा रूप संस्तुति व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे प्रेरित कर इस ग्रन्थ के अधुनातन संस्करण के लिए बारम्बार उत्साहित किया। यथार्थ में मैं डॉ. आ. ने, उपाध्येजी का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिनके सम्पादित 'सन्मतिसूत्र' की सहायता से मैं इस विशद ग्रन्थ का सम्पादन कर सका। हाय : दुर्दैव की क्रूरता ने यह अवसर भी मुझ से छीन लिया, जिन क्षणों में व्यक्तिगत रूप से उस महान व्यक्तित्व के प्रति प्रत्यक्ष रूप से अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकता। मैं पं. मूलचन्दजी शास्त्री तथा पं. नाथूलालजी शास्त्री का भी अनेक मूल्यवान सुझावों तथा अर्थ-बोध के लिए आभारी हूँ। अन्त में भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों तथा सहयोगियों का भी आभार है, जिनके माध्यम से यह ग्रन्थ इतने सुन्दर रूप से प्रकाशित हो सका है।
1. शास्त्री, डॉ. नेमिचन्द्र : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा, खण्ड 2, पृ. 214