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प्रस्तावना
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(जैसे- मोत्तूण 2, 25 होऊण 2, 2 ) ।
(5) महाराष्ट्री प्राकृत में सभी अन्तःस्वरात्मक महाप्राण स्पर्शी व्यंजन लुप्त हो जाते हैं तथा सभी अन्तःस्वरात्मक सघोष महाप्राण स्पर्शी व्यंजन 'ह' रूप में ह्रस्व हो जाते हैं (जैसे- सुहो- सुख, जहा- यथा, दुविहो- द्विविध, साहओ - साधक) उपलब्ध होते हैं जो अन्य साहित्यिक प्राकृतों से भिन्न हैं। यह प्रवृत्ति इस ग्रन्थ में अतिशयता से मिलती है। उदाहरण के लिए कई शब्द उद्घृत किए जा सकते हैं; जैसे कि साहपसाहा ( 15 ), पहो ( 1, 41 ), पणिहाणं ( 1, 43 ) तहेव ( 2, 15), अवहि ( 2, 20), अहिंय ( 3, 15 ), विराहओ ( 3, 45), साहओ ( 3, 46 ), साहम्मउ ( 3, 56 ), साधारं ( 2, 11 ), सलाहमाणा ( 3, 62), पडिसेहे ( 2, 39), पसाहणं ( 1, 44 ), अहिगय ( 8, 65 ), इत्यादि ।
'सन्मतिसूत्र' में अन्तःस्वरीय या अव्यवहितपूर्व व्यंजन इकाई रूप में शब्द ग्रहण करते समय सामान्यतः ह्रस्व होने की अपेक्षा क, ग, च, ज, त, द और प का लोप हो जाता है और 'य' श्रुति तथा कहीं-कहीं 'च' श्रुति का भी प्रयोग हुआ है; जैसे कि सायारं ( 2, 11), वियाणतो (2, 13), सुय (2, 27 ), जवउत्तो ( 2, 29), उप्पाओ (2,81), उववण्णं ( 2, 33 ), साई ( 2, 34 ), उयाहरण ( 2, 31), य ( 1, 43 ), वयमाणो (3, 2), उ ( 3, 4), यि (9, 6), एवं ( 3, 15), पज्जव (1, 9), उवणीयं ( 3, 22 ), भूया (8, 24), 3 (3, 25), une) (5, 26), FM (8, 27), Kg (3, 29), (3, 26), यवएसो ( 3, 89 ) इत्यादि ।
इनके अतिरिक्त हमें ग्रन्थ में सर्वत्र 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग मिलता है (जैसे- गाणं ( 2, 6), देसणं ( 2,6), ण (2, 10), पण्णत्तं ( 2, 14), अण्णत्तं ( 2, 22 ), पियमेण ( 2, 24 ), अणागय (2, 25 ), तेण ( 2, 26), णवरं ( 3, 14), णणु ( 3, 20), उण ( 8, 21), णयण (3, 21 ), णिमित्तं ( 3, 22 ), आदि ।
यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से शौरसेनी की ओर झुकाव प्रदर्शित करती है। निःसन्देह रूप से अधिकतर दिगम्बर जैन आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में ही लिखा हुआ मिलता है। अतएव 'सन्मतिसूत्र' की भाषा शौरसेनी प्रभावापन्न महाराष्ट्री है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि रचना में देशी शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति भी लक्षित होती है णिमेणं ( 1,5), भव्वय' ( 3, 17), हंदी' ( 3, 28 ) प्रभृति क्रियापदों में भी हवइ, पासड़, पडइ, होइ, कुणइ, जुज्जइ आदि महाराष्ट्री की प्रवृत्ति स्पष्टतः द्योतित करते हैं। इस प्रकार प्राकृत बोलियों के भाषा वैज्ञानिक समीक्षणों के अनुसार, विशेषकर महाराष्ट्री के अध्ययन के आधार पर यह सहज ही निश्चित हो जाता है कि इस ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्री है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के विचारों से भी इस तथ्य की पुष्टि
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1. सेन, सुकुमार ए कम्पेरेटिय ग्रैमर ऑव मिडिल इण्डो-आर्यन, पूना, 1960, पृ. 20
2. "णिषेणमयि ठाणं" - देशी नाममाला, 4, 37
५.
व्यो बहिणीतणाए" – यहीं, 6, 100
4.
“तत्र हाँ, विषादविकल्पपश्थानार्णनश्चयसत्यगृहाणार्येषु ।" वहीं, 8, 7५ निवृति