________________
सम्मइसुत्तं
में 'सन्मतिसूत्र' का प्रबल शब्द-सादृश्य लक्षित होता है। "न्याय-कुमुदचन्द्र' में जो यत्किचिंत सादृश्य परिलक्षित होता है, वह 'प्रमेयकमल-मार्तण्ड' के माध्यम से आमत हैं; साक्षात् नहीं। पं. महेन्द्रकुमार जी के शब्दों में 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' के जिन प्रकरणों के जिस सन्दर्भ से "सन्मतितर्क" का सादृश्य है, उन्हीं प्रकरणों में "न्यायकुमुदचन्द्र' से भी शब्द-सादृश्य पाया जाता है। केवल शब्द-सादृश्य ही नहीं, वस्तु-विषय में तथा भावों में भी विविध आयामी साम्य स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य आचार्यों की रचनाओं पर भी आचार्य सिद्धसेन का प्रभाव सामान्य रूप से लक्षित होता है, जिनके नाम हैं-हरिभद्रसूरि (वि.सं. 757-827), शीलांक, शान्तिसरि, वादिदेव, अनन्तवीर्य, हेमचन्द्र और यशोविजय । यथार्थ में आचार्य सिद्धसेन ने प्रवल युक्तियों के द्वारा जिस अभेदवाद के सिद्धान्त की पुनः प्रस्थापना की और दर्शन तथा अवग्रह आदि मान्याताओं का सिद्धान्त के रूप में स्पष्ट विवेचन किया, उनसे प्रभावित हो कर परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने भी उनका अनुगमन किया। विशद रूप से आचार्य सिद्धसेन की रचनाओं का अध्ययन करने की दिशा में यशोविजय अंतिम विशिष्ट विद्वान थे। इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन का महामहिम प्रभाव सतत जैन साहित्य पर लक्षित होता रहा है।
भाषा
यह पहले ही कहा जा चुका है कि इस ग्रन्थ की भाषा प्राकृत है। यद्यपि प्राकृत में विभिन्न बोलियों का अस्तित्व लक्षित होता है जो सामान्यतः हमारी समझ से परे है, तथापि भाषागत प्रवृत्तियों के आधार पर इस ग्रन्थ में प्रयुक्त बोली का निश्चय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कि 'सन्मतिसूत्र' में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप है और उनके स्थान पर 'य' श्रुति का प्रयोग हुआ है। डॉ. हीरालाल जैन के अनुसार प्राकृत भाषा में द्वितीय शताब्दी के पूर्व इस प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। यह भाषागत प्रवृत्ति ईस्वी की द्वितीय शताब्दी के पश्यात् प्रारम्भ हुई। यथार्थ में यही महाराष्ट्री प्राकृत की भेदक आकृति है। प्राकृत के वैयाकरणों के अनुसार महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण निम्नलिखित हैं:--
(3) कर्ताकारक एक वचन में 'ओ' प्रत्यय जुड़ कर प्रथमा विभक्ति बनती है (जैसे-संसारो, णयो, विसेसो, भायो इत्यादि)1
(2) संस्कृत में जहाँ कर्मवाच्य में 'य' प्रत्यय संयुक्त होता है, उसके स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' हो जाता है (होज्ज 2, 9; साहेज्ज 3, 56; वणिज्ज 3, 62)।
(3) महाराष्ट्री प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में म्मि' प्रत्यय प्रयुक्त होता है (समयम्मि ।, 50; सुत्तम्मि 2,7; केवलणाणम्मि ५, 8 अट्टम्मि 2, 25; गुणम्मि 3, 15; संपयणम्मि $, G4)।
(4) पूर्वकालिक कृदन्त की रचना 'ऊण' प्रत्यय लगा कर की जाती है 1. न्यायाचार्य, पं. महेन्द्रकुमार जैन; न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. 10 2. यशाली इन्स्टीट्यूट रिसर्च बुलेटिन (ो. झोपताल जैन स्मृति-*क, सं. 2. 1974. पृ.8