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सम्मइसुतं
व्यवहार होता है। और उस व्यणुक से विभक्त हुआ अणु 'यह अणु है' ऐसा व्यवहार होता है। जैसे दो अणुओ के संयोग से उत्पन्न हुए द्रव्य में 'यह ट्यणुक उत्पन्न हुआ है तथा तीन अणुओं के संयोग से उत्पन्न हुए द्रव्य में 'यह त्र्यणुक उत्पन्न हुआ हैं। ऐसा व्यवहार होता है। इसी प्रकार परमाणुओं के समूह रूप स्कन्ध के विभक्त हो जाने पर (खण्ड-खण्ड हो जाने पर) ये अणु 'अणु' हुए हैं-ऐसा भी व्यवहार होता है। इस प्रकार संयोग तथा विभाग दोनों से घट-पटादि कार्य रूप द्रव्य की उत्पत्ति होती है-यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है। कहा भी है
"भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते । मेदादणुः।"-तत्त्वार्थसूत्र, अ. 5, सू. 26, 27 अर्थात् भेद से, संघात से तथा भेट और संघात दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। स्कन्धों के भेद से दो प्रदेश वाले स्कन्ध तक उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार अणु की उत्पत्ति भेद से ही होती है।
बहुयाण एगसद्दे जह संजोगाहि होइ उप्पाओ। णणु एगविभागम्मि वि जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ ॥40॥ बहूनामेकशब्दे यथा संयोगर्भवत्युत्पादः । नन्वेकविभागेऽपि युज्यते बहूनामुत्पादः ॥10॥
शब्दार्थ-बयाण-बहुतों में; एगसद्दे-एक शब्द (का प्रयोग होने) पर; जह-जिस प्रकार; संजोगाहि-संयोगों से: उप्याओ-उत्पत्तिः होइ-होती (है); णणु-निश्चय से; एगविभागम्मि-एक (का) विभाग होने पर; बहुयाण-बहुतों की; वि-भी; उप्पाओ-उत्पत्ति; जुज्जइ-बन जाती है।
विभाग से मी कार्य-द्रव्य की उत्पत्ति : भावार्थ-बहतों से संयोग होने पर जैसी एकाकार प्रतीति होती है तथा एक शब्दवाच्यता आती है, वैसी विभाग से उत्पन्न हुए कार्य-द्रव्य में नहीं होती-इस शंका के समाधान के लिए उक्त गाथा कही गयी है। जिस प्रकार अनेक के संयोग से एक कार्य-द्रव्य की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक के विभक्त होने पर अनेक कार्य-द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, जैसे कि घड़ा फूट जाने पर अनेक ख़परिवाँ (टुकड़े) उत्पन्न दिखाई पड़ती हैं। अतएव विभाग से भी कार्य-द्रव्य की उत्पत्ति होती है। पुद्गलों के अनन्त भेद हैं। सामान्यतः सभी अणुजाति और स्कन्धजाति के भेद से दो प्रकार के हैं। जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार की संघटना होती 1. ब जइ संजोगाण।