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________________ Posसंखोहचासिया को मन्द करता है अथवा कर्मों का संक्रमण कराता है । यत्जाचारपूर्वक किया। गया सम्यक् पुरुषार्थ भावी विपत्तियों से बचाकर जीत को सुखी बनाता है ।। इतना ही नहीं अपितु कर्मनिर्जरा के लिए पुरषाय ही एकमात्र कारण है ।। अतएव पुरुषार्थ करना व्यर्थ नहीं है । कृतकर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यह बात सामान्य कथन है ऐसा जानना चाहिये । उत्सर्ग कथन की अपेक्षा से कर्मो को भोगे बिना भी मष्ट किया जा सकता है। जैसी करनी वैसी भरनी इय जाणऊण हियए अणुदिणु संता वि मूढ अप्पाणं । जं विहियं तं लब्भइ जम्मे वि ण अण्णहा होइ ॥४५|| अन्वयार्थ :... (मूळ) मूर्ख (इय) ऐसः (जाणऊ ण) जानकर (हियए) हृदय में (अणुविणु वि) रात दिन (अप्पाणं) आत्मा को (संता) संताप दे (मत) (जं) जो (विहियं) विधि में है (तं) वह (लगभइ) मिलेगा (जम्मे वि) जन्मभर में भी (अण्णहा) अन्यथा (ण) नहीं (होइ) होता है । संस्कृत टीका : रे जीव! इति मत्वा ज्ञात्वा स्वहदये जिनवचनं निश्चलं कुरुरे बहिरात्मन! रे मूढ ! अणुदिणु-अहर्निशं स्वात्मानं मा सन्तापय । के: ? आर्त्तौंद्रादिभिः स्वात्मानं तुर्गति मा क्षिपतु । यत्किञ्चित् विहियं कर्मोपार्जितं पूर्वभवोपार्जितं तत्प्राप्यते । कदाचिदाजन्म-जन्मपर्यन्तं प्रचुराशातृष्णादिभिः पापं मिथ्यात्वं करोषि तदप्यन्यथा न भवति। टीकार्थः रे जीव ! ऐसा जानकर जिज हृदय में जिनदचन को निश्चल करो। रे ! बहिरात्मन् ! ३ मूढ़ । रात-दिन आत्मा को सन्ताप मत दे।। शंका- किसके द्वारा ? समाधान- आर्त्त-रौद्रादिक के द्वारा आत्मा को दुर्गति में मत डाल 1 जो कुछ कर्म पूर्व में उणर्जित किया हुआ है. वहीं तुझे प्राप्त होगा।।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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