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________________ भावार्थ: जैसा करेगा वैसा भरेगा यह लोक में सुप्रसिद्ध सिद्धान्त हैं । इस जीव ने जैसा कर्म पूर्वभव में उपार्जित किया है, यहाँ वह उसी के फल को प्राप्त करता है. अन्य को नहीं । आत्मा के कल्याण को चाहने वाले भव्यजीवों को तृष्णा. आशंकादि व मिथ्यात्वादि के द्वारा व्यर्थ में पापकर्म को बांधना उचित नहीं है । संबीह पंचासिया कृतकर्म का फल अवश्य मिलता है जइ गाहियहि मयरहरं पव्वइ आरुहहि जइ वि लोहेण । तहय तहं विय माणजं विहियं तं समावइए ॥ ४४ ॥ अन्वयार्थ : : (जह ) याद (मथरहरे) सागर में (गाहियाहे) जवणारुन (पव्वद्द वि ) पर्वत पर भी (लाहेण) लोभ से (आरुहहि) आरोहण करेगा (तह य) फिर भी (तं) तू (तहं वि य माणजं) तन्मात्रा में ही (विहियं) बुरा (समावइए) पायेगा | संस्कृत टीका : अरे अतिमोही जीव ! कदाचित्त्वं समुद्रमवगाहसे । केन ? अत्युद्यमेन । पुनस्त्वं पर्वतशिखरेऽप्यारोहणं करोषि तदपि विहितं स्वकर्मोपार्जितं सुखदुःखं तन्मात्रं त्वं प्राप्नोषि । न हीनं न चापि वृद्धम् । टीकार्थ : : अरे मोही जीव ! कदाचित् तू समुद्र में अवगाहन करेगा। कैसे ? अति उद्यम से। फिर तू पर्वत के शिखर पर आरोहण करेगा, फिर भी तू जिजोपार्जित सुख - दुःख उसी तरह प्राप्त करेगा न हीन प्राप्त होगा, ज अधिक 1 भावार्थ: उद्यमवन्त पुरुष को यहाँ रामझाया गया है कि, रे मूढ । कर्म में फेर बदल कर पाना असंभव है। तुम चाहे जितने प्रयत्न करलो. तुम्हें कृतकर्म का फल भोगना ही पड़ेगा । शंका- तो क्या पुरुषार्थ करना व्यर्थ है ? समाधान नहीं, क्योंकि वह कर्म के स्थिति का अपसरण करता है. 60 अनुभाग
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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