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________________ सर्वोोह पंचासिया कदाचित् आजन्म प्रचुर आशा व तृष्णा से पाप करेगा, फिर भी वह अन्यथा नहीं होगा । भावार्थ: - रे जीव ! कर्म तुझे फल देंगे ही ऐसा जानकर तू निश्चल हो । क्यों हक ही आत्मा को सन्ताप दे रहे हो ? तृष्णा व आशा की बहुलता के वशात् भले ही तू चाहे जो प्रयत्न कर ले, फिर भी तुझे कुछ नहीं मिलता है ! इच्छित फलप्राप्ति का उपाय धम्मं करेहि पूयहि जिणवर थुइ करेइ जिणचरणे । राज्यं धरेहि हियए जं इच्छा से सभाषडए ॥ ४६ ॥ अन्वयार्थ : (धम्मं ) धर्म (करेहि) कर (जिणवर) जिनेन्द्र की (पूयहि) पूजा कर (जिण चरणे) जिन चरणों की (थुइ) स्तुति (करेइ) कर (हियए) हृदय में ( सच्चं ) सत्य को (धरेहि) धार (जं) जो (इच्छइ) चाहता है (तं) वह (समावडर) मिलेगा । संस्कृत टीका : हे जीव ! यदि त्वं मनोवाञ्छितं फलमिच्छसि तर्हि जिनधर्मं निर्मलं कुरु । लोकमूढतां मुक्त्वा मिध्यात्वं त्यक्त्वा देवाधिदेवं ज्ञात्वा जिनधर्म कुरु, पुनः जिलार्चनं कुरु । वित्तानुसार: जिनेन्द्रस्य गुणान् ज्ञात्वा जिनार्चनं कुरु । इन्द्रियादिक सुखस्य वाञ्छणं विहाय जिनाच कुरु, पुनः गद्यपद्यात्मिकां स्तुतिं कुरु । क्व ? जिनेन्द्रचरणे । सत्यवचनं जिनमार्ग स्वहृदये घरेहि धर, पुनः सम्यक्त्वेन सह व्दादश व्रतानि पालय । कस्मात् ? यतः इहामुत्र च भोगाः स्वयमेव विनायासेन त्वं प्राप्नोषि । टीकार्थ : हे जीव ! यदि तू मनोवांछित फल चाहता है तो निर्मल जिनधर्म धार ले । लोकमूढ़ता को छोडकर, मिथ्यात्व को त्यागकर, देवाधिदेव को जानकर जिन धर्म कर । जिनार्चना कर। जिनेन्द्र के गुणों को जानकर धन के 'अनुसार ( शक्ति के अनुसार) जिजार्चन कर । इन्द्रियादिक के सुखों की वांछा को छोडकर 62
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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