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संसार की अनित्यता णिच्चं खिज्जइ आऊ णिच्वं दूकेइ आसणं तिमिरं । णिच्चं जोव्वण विगलइ किं ण मुणहि एरिसं लोइ ।। १७ ॥ अन्वयार्थ :(णिच्चं) नित्य (आऊ) आयु (खिज्जह) क्षय हो रही है । (तिमिरं)। अन्धकार (आसणं) पास में (दूकेड) आ रहा है। (जोठवण) यौवन (विगलह)। नष्ट हो रहा है । (एरिसं) ऐसा (लोह) देखकर (किं) क्यों (ण) नहीं (मुणहि) विचार करता है? संस्कृत टीका :
हे शिष्य! अब भवेऽस्य जीवस्य निरन्तरमायुः गलति । पुनः निरन्तरमासन्नं निकटं तिमिरमज्यकारः प्राप्यते । पुनः नित्यं निरन्तरं यौवनं विलयं याति । रे जीव ! अत्र संसारे ईशमनित्यत्वं कथं न विचार्यते ? टीकार्थ :
हे शिष्य ! इस संसार में इस जीव की निरन्तर आयु क्षीण हो रही है, पुनः सतत अन्धकार निकटता को प्राप्त हो रहा है । यौवन हमेशा विलय को प्राप्त हो रहा है।
रे जीव ! इस संसार के ऐसे अनित्यत्व का विचार तुम क्यों नहीं करते | हो? भावार्थ :
पूर्वबद्ध आयुकर्म के उदय से मनुष्य वर्तमान में आयुकर्म के निषेकों को भोग रहा है। आयुकर्म के निषेक नियत हैं। प्रतिसमय वे जिषेक उदय में आकर झड रहे हैं । अर्थात् आयु का नाश प्रतिसमय हो रहा है। मृत्यु का अन्धकार सतत पास में आ रहा है।
यौवन भी चीरस्थायी कहाँ है ? वह भी प्रतिसमय ढलता जा रहा है । अर्थात् यौवन कल आने वाले बुढापे का संकेत दे रहा है ।
अतएव भव्यजीवों को अपने मन में अनित्यता का चिन्तन करके | वैराग्य भावों को दृढ़ कर लेना चाहिये।