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________________ It संबीरपंजानिया. com सम्यक विचार की आवश्यकता लच्छी ण हु देइ पयं थक्कइ णिय पुग्गलं च वण्णं च । परियणु बलि विणु जोवइ कि णभुणहि परिसं लोए॥१८॥ अन्वयार्थ :लच्छी) लक्ष्मी अपने (थाह) स्थान से (पयं) एक पद (हु) भी (ण) नहीं (ड) चलती है । (णिय) अपला (पुग्गलं च) पुद्गलमय शरीर, (वण्णं च) उसका वर्ण और (परियणु) परिजन (बलि) त्याग, बलिदान (विणु) बिना (जीवइ) जीवित रहता है । (एरिसं) ऐसा (लोए) लोग (किं) क्यों (ण) नहीं (मुणहि) दिवार करते हैं ? | संस्कृत टीका : रे जीव ! अत्र संसारे एषां मोहिनां प्राणिनां मरणकाले लक्ष्मीः जीवेन सह एकपदं न ददाति । पुनः पुद्गलमयं शरीरमपि तत्र स्थिति न करोति, जीवेन सहन | चलति। ___ एवमुत्प्रेक्षते - यतः पुद्गलमयं शरीरं कथयति । किम् ? अहं पुद्गलमयं शरीरं हुताशनमध्ये प्रज्यलामि, काष्ठानिनभक्षणं करोमि परन्तु अनेल जीवेन सह न गच्छामि। करमात् ? दुर्जनस्वभावात् । पुनः वर्णमाभरणादिकं जीवेन सह न गच्छति। पुनः परिजनः कुटुम्बादिक | सर्व पुद्गलस्य न दृश्यते । रे जीव! इन्द्रसम्भवस्वरूपं नृजाम कथं न जानासि त्वम् ? टीकार्थ : रे जीव ! इस संसार में इस मोही प्राणी के मरणकाल में लक्ष्मी जीव के साथ एक पग भी नहीं चलती । पुनः पुदगलमय शरीर भी वहाँ स्थिति नहीं करता है। अर्थात् वह जीव के साथ जहीं चलता है। यहाँ उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह पुद्गल शरीर जीव से कहता है । क्या कहता है ? मैं पुढ्गलमय शरीर अग्नि में जल जाऊंगा, काष्ठ और अग्नि का | मैं भक्षण करूंगा, किन्तु इस जीव के साथ नहीं जाऊंगा | वह ऐसा क्यों कहता
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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