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________________ r e ate transtar सम्यक् चिन्तन की प्रेरणा गजकण्णचवललच्छी जीवं तह अब्भपटलसारिच्छं। चिंतेहि मूढ णिच्चं दप्पण छायव्व पीमाणं ॥१६॥ अन्वयार्थ :(गजकण्ण) गजकवित् (चवल) चंचल (लच्छी) लक्ष्मी है : (तह) तथा (अभपटलसारिच्छे) अनपट लवत् (जीव) जीवन है । (पीमाणं) प्रेम (दप्पण) दर्पण के (छायव्य) प्रतिबिम्ब के समान है। (मूढ) हे मूर्ख ! (णिसं)। हमेशा ऐसा(चिंतेहि) चिता कर। संस्कृत टीका : रे जीव ! अत्र संगरे ताजकर्णवत् चपला लक्ष्मीरिति विज्ञानीहि । पुनः जीवितव्यमभप्रटलवजानीहि । रे मूर्ख ! नित्यं निरन्तरमेवानित्यं त्वया चिन्तनीयम् । किमिद ? यथा दर्पणमध्ये मुखमवलोकनात्क्षणेनादृश्यं भवति, ततत्प्रेमस्नेहादिक जेयम्। टीकार्थ : रे जीव ! इस संसार में हाथी के कान की तरह लछमी भी चंचल है ऐसा । तुम जानो । पुनः जतिन अभपटल के समान है ऐसा तुम जाजो । रे मूर्ख ! तुम्हे अनित्यता का निरन्तर चिन्तन करना चाहिये। शंका :- प्रेम किसके समाज है ? समाधान :- जैसे हाणि में मुख देखने पर क्षण में वह प्रतिबिम्ब अदृश्य होता | है, वैसे ही प्रेम-स्नेहादिकों को जानना चाहिये । भावार्थ : दर्पण में कोई पुरुष अपने मुख का अवलोकज कर रहा है। दर्पण से दूर हटले ही प्रतिबिम्न भी अदृश्य हो जाता है, तब्दत् सामने स्नेहादिक का प्रदर्शन करने वाले परिजन पीठ दिखते ही प्रेम को भूल जाते हैं। | जीवन मेघपटल के समान अणिक है । धनलक्ष्मी कुंजर के श्रोत्रेन्द्रिय के समाज चंचल है। अताइव भव्यजीवों को सदा सर्वदा संसार की अनित्यता का चिन्तन करना चाहिये।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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