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________________ Priorite संशोह पचासिया जीवन की क्षणभंगुरता जीवं खणेण मरणं जोव्वणलच्छी खणेण वियलेइ । खणि संजोउ विओगो संसारे रे सुहं कत्तो ।।१५।। अन्वयार्थ :(खणेण) भर में (मरणं) मरण होता है । (जोव्वणलच्छी) यौवजलक्ष्मी | (वियलेइ) नष्ट होती है । (खणि) क्षणभर में (संजोउ) संयोग से (विओगो) वियोग होता है । (रे जीवं) रे जीव ! (संसारे) संसार में (सुह) सुख (कत्ती) कहाँ है ? अर्थात् संसार में सुख नहीं है। संस्कृत टीका : रे विषयलम्पट मूढ जीव ! अत्र संसारे सुखं कथं भवति ? अपि तु न । कुतः ? यतः कारणास्त्र संसारेऽस्य जीवस्य क्षणमात्रं विनश्वरं जीवितव्यं स्यात् । पुनः क्षणमात्रेण मरणं भवति । पुनः यौवनलक्ष्मीः क्षणमात्रेण विलयं याति । पुनः पदातुनः संयोगो भवति तदातुनः क्षणमात्रेण वियोगो भवति । ततः कारणादत्र संसारे मुखं नास्ति। टीकार्थ : रे विघरालम्पट मूढ़ जीव ! इस संसार में सुख कैसे हो सकता है ? नहीं। हो सकता । क्यों नहीं हो सकता है ? क्योंकि इस संस्गर में इस जीव का अणभर का ही (विनश्वर) जीवन है। फिर क्षणभर में मरण हो जाता है। पुनः यौवनलक्ष्मी भी क्षण में नष्ट होती है। जिस वस्तु का संयोग होता है. उस वस्तु का क्षणभर में ही वियोग होता है। इस कारण से इस संसार में सुख नहीं है। । भावार्थ : संसार की समस्त वस्तुयें असार व अस्थायी हैं। अतएव इस संसार में सुरख कैसे हो सकता है ? सुख आत्मा का गुण है। अनाकुल आत्मपरिणति को ही सुख कहा जाता है। आत्मतत्त्व के बोध से अपरिचित मूढात्मा बाहावस्तुओं में ही सुख्ख की कल्पना करता है । शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए आत्मा को परद्रव्य निरपेक्ष होकर निज अन्तस्तत्त्व में रमण करता चाहिये।।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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