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Neeta संजीह पंशासिया tam
यौवनावस्था में धर्म करना चाहिये मूढय जोवण धम्मु करि जरइ ण घिपई जाम | थेर बहिल्लहु चलइ जिमि पुणउं ण सक्कइ ताम ॥१४॥ अन्वयार्थ :(मूढय) हे मूढ़ ! (जाम) जबतक (जरइ) बुढापा (धिपई) धेरता (ण) नहीं है तबतक (जोगाणी सौवन में सम्म) का करि) को (धेर) बूढ़ा (बहिल्लहु) बैल (जिमि) जैसे (चलइ ण) नहीं चल पाता है। (पुणउं) फिर उठने में (ण सक्कइ ताम) शक्य नहीं हो पाता। संस्कृत टीका :
रे मूढजीव! त्वं यौवनावस्थायां जिनधर्म कुछ । पुनः यावत् त्वं जरया न यस्तः तावग्जिजधर्म कुरा । पृद्धत्वेऽशक्तत्वेन धर्मकरणायासमर्थो भविष्यसि । क इव ? यथा वृद्धः बलीवर्द चलनादिक्रियायासक्षमो भूत्वा पतति पश्चात् पतित्वानन्तरं पुनरपि उत्थातुं न शक्नोति । तन्दत् ज्ञात्वा, हे भ्रमणशील जीव ! यौवनावस्थायां जिनधर्म कुख। टीकार्थ :
रे मूर्ख जीव ! तुम यौवनावस्था में जिनधर्म करो। जबतक तुम बुढापे से ग्रस्त नहीं होते तबतक तुम धर्म करो। बुढ़ापे में अशक्तता से तुम धर्म करने में असमर्थ हो जाओगे। शंका :- किसके समाज ? समाधान :- जैसै बूढा बैल चलनादि क्रिया में असक्षम होकर गिर जाता है, फिर गिरने पर वह उठ नहीं सकता है, वैसे ...... I हे भ्रमणशील जीव ! यौवनावस्था में जिनधर्म करो । भावार्थ :
यदि बूदा बैल अशक्तता के कारण जमीन पर गिर जाये तो पुनः वह उठ नहीं सकता वैसे जरावस्था में धर्मकर्म में आदमी असक्षम हो जाता है, अतएव युवावस्था में ही जीव को धर्माचरण करना चाहिये।