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Iradat
संबोलीवासिया
मोक्ष का उपाय इय जाणिउ णियचित्ते धम्मं जिणभासियं च कायव्वं ।
जह भव दुक्खसमुद्दे सुहेण संतारणं लहहं ॥१०॥ अन्वयार्थ:(इय) ऐषा (जाणित) लगनकर (जिणाभासियं च) जिनेन्द्रप्रणीत (धम्म) धर्म को (णियचित्ते) निज चित्त में (कायठव) धारण करो (जह) जिससे (भव दुक्खसमुद्दे) अव - अव के दुःख स्ट्रगर से (सुहेण) सुख से (संतारणं) तैरकर (लहहं) (मोक्ष को ) णता है। संस्कृत टीका :
हे शिष्य! एवममुनाप्रकारेण स्वचित्ते ज्ञात्वा जिनभाषितो दशविधो धर्म राचया कर्तव्यः। येन जिनधर्मेण कृत्वा भवसंसारःखसमुद्रं सुखेन ती मोक्षःसंप्राप्यते। टीकार्थः
हे शिष्य ! अपने मन में इसप्रकार जानकर जिनेन्द्रदेव के द्वारा भाषित इस प्रकार के धर्म में रुचि करना चाहिये ताकि जैनधर्म को धारण करने से संसार के दुःखसागर से पार होकर मोक्ष प्राप्त हो सके । भावार्थ:
पूर्व गाथा में कहा गया था कि इस जीव को मनुष्यभत, आर्यखण्ड, उत्तमगोत्र, जैनकुल, लक्ष्मीसम्पन्नता, सत्पात्रलाभ, आरोग्य. इष्टसंयोगीपना और चिरायु आदि निमित्तों की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभता से होती है । ऐसा जानकर जीव को जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे हुये उत्तम क्षमादि दशविध धर्म को धारण करना चाहिये । क्रोध नहीं करना क्षमाधर्म है। मदभाव को धारण करना माईवधर्म है । ऋजुभाव को धारण करना आर्जवधर्म है। लोभ का अभाव शौचधर्म है। हित-मित और प्रियवचन को बोलना सत्यधर्म है । इन्द्रियों का निरोध एवं प्राणियों पर दया करना संयमधर्म है। इच्छा का निरोध करना लपधर्म है। चतुर्तिध दान देना त्यानधर्म है। सम्पूर्ण परिशहों का त्याग आकिंचन्यधर्म है और आत्मस्वभाव में रमण करना ब्रह्मचर्य धर्म है। इसी धर्म के द्वारा जीव भवरसमुद्र से पार होता है।