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मनोहावाशिशा ka
विषय विषधर है विसयभुयंगम डसियो मिच्छामोहेण मोहियो जीवो।
कम्मविसेण य धारिउ पडिहसि णरये ण संदेहो ॥११॥ अन्वयार्थ:(विसय)विष्यरूपी (भुयंगम) विषधर (डसियो) डसने पर (मिच्छामोहेण)!! मिश्यामोह से (जीवी) जीव (मीहियो) महिंदा होता है । (कम्मविसेण य) कर्मरुपी विष को (धारिउ) धारण करके वह (णरये) जरक में (पडिहसि) पड़ेगा (ण संदेहों) इसमें संदेह नहीं है। संस्कृत टीका :--
रे मोही जीव ! त्वमत्र संसारमध्येऽनन्तानन्तकालपर्यन्ते पञ्चेन्द्रियाणां विषयैरेव भुजङ्गमैः दष्टः । पुन आशा-तृष्णा-शाभिः तिसृभिः शाकिजीभिस्त्वं ग्रस्तः। पुनः मिथ्यात्व-मोह-मद-कषायैरेव मद्यपालेरुन्मत्तो जातः। पुनः कर्मभिरेव | हालाहलविषयैस्त्वं धारितः। इत्यादिभिवृत्तान्तैः जीव! त्वं योरनरके पतिष्यसि । नास्ति सन्देहः। टीकार्थ:
रेमोही जीव ! तुम्हें इस संसार में अनन्ताजन्त कालपर्यन्त पंचेन्द्रियों के विषयरूपी भुजंगों ने इसा है । पुनः तुम आशा. तृष्ठा और शंकारुपी तीन शाकिनियों से दास्त हुए हो। पुनः तुम मिथ्यात्व, मोह. मढ़ इन कषायों के मद्यपान करने से उन्मत्त हो चुके हो । पुनः कर्मों के महान विष को तुमने धारण किया है । इत्यादि कारणों से हे जीव ! तुम घोर नरक में जाओगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। भावार्थ:
पंचेन्द्रिय के विषय सर्प के समान हैं, जो जीव को भव-भद में दंश (डसते) करते आये हैं। आशा, तृष्णा व शंकासपी शाकिनियों से यह जीव स्वरूपानभिज्ञ हुआ है। यह मूढात्मा कर्मों का विष पी रहा है । अतएव इसमें कोई संशय ही शेष नहीं रह जाता है कि इनके कारण यह जीव नरक में न जायेगा अर्थात् निश्चित् ही नरक में जायेगा।