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बोचासिया जावे तो उत्तमपात्र नहीं मिलते हैं। आरोग्यत्व व इष्टसंयोगत्व उपलब्ध नहीं होता है । यह प्राप्त हो जाये फिर भी चिरायु नहीं मिलती। कदाचित् उपर्युक्त बातें महत्पुण्योदय से प्राप्त भी हो जाये तो भी अर्हन्तप्रभु के गुणों का चिन्तवन, व्यवहार और निश्चयरूप जिनधर्म का चिन्तवन प्राप्त नहीं होता। शंका :- किसके समान ? समाधान :- जैसे यह जीव दिनरात नवयौवजसंपन्न स्त्री व पुत्रादि पर मोही होता हुआ महान उद्यमी होता है, वैसे ही अर्हन्त के गुणों का चिन्तन यह प्राप्त क्यों नहीं करता ? अर्थात् करना चाहिये । भावार्थ:पण्डितप्रवर दौलतराम जी ने लिखा है कि
काल अनन्त निगोद महार। बीत्यो एकेन्द्रिय तन धार॥
(हवाला :- १/४) इस जीव का अनन्तकाल निमोदपर्याय में ही व्यतीत हो गया। वहाँ से अन्य पंच स्थावरों में उत्पन्न होकर बहुकाल बीत गया । इस जीव ने बड़े ही शुभोदय से त्रस पर्याय प्राप्त की किन्तु अमानवश स्वात्मकल्याण से वंचित रहा। चतुर्गति में इस जीव ने अतीव कष्टों को सहन किया । (चतुर्गति में इस जीव ने जो दुःख पाये उसकी जानकारी हेतु पढ़िये -कैद में फँसी है आत्मा नाम की मुनिश्री द्वारा लिखित लघु कृति - सम्पादक)
भाग्योदय से मनुष्यभव प्राप्त हो जाये, साथ ही प्रबल पुण्योदय के निमित्त से आर्यखण्ड, उत्तममोत्र, जैनकुल, लक्ष्मीसम्पमता, सत्पात्र, आरोग्य, इष्टसंयोगीपना और चिरायु की प्राप्त हो जाये तो भी जिनेन्द्र के गुणों का चिन्तवन प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्य यह है कि मनुष्यभव और आर्यखण्डादि की प्राप्ति होने के उपरान्त भी धर्म करने की भावना का होना अतिशय दुर्लभ है। आत्मकल्याण के इच्छक जीवों को प्राप्त संयोगों का समुचित लाभ लेना चाहिये।