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* * *संत्रौह संचाशिया
धर्म का आवरण न करने वालों की निन्दा दीवम्हि करे गहिए पडिमि अवडमिह णन्थि पंदेहो ।
मणुयत्तणं च पावि वि जइ धम्मे ण आयरं कुणह ॥७॥ अन्वयार्थ:(जइ) यदि (मणुयत्तणं) मनुष्यतन को (पावि वि) पाकर भी (तुम) (धम्मे) धर्म का (आयरं) आचरण (ण कुणह) नहीं करते हो तो (दीवम्हि) दीपक को (करे) हाथ में (गहिए) लेकर (अवडम्हि) तुएँ में (पडिहसि) गिर रहे हो (इसमें कुछ भी) (संदेहो) संशय (त्थि) नहीं है। संस्कृत टीका :
अहो शिष्य ! अत्र संसारे स जीवः दीपं स्वकीयकरण गृहीत्वा कूपे पतति, नास्ति सन्देहः । स कीडशो जीवः ? येन जीवेन दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्यापि जिन धर्मो न कृतः । अरे मोहिजीव ! यदि त्वं जिनधर्मोपर्यादरं न करोषि, तर्हि त्वया दुर्लभ जन्म हारितम् । कैः कृत्वा ? विषयासक्तः । तृष्णाशाभ्यां सकाशात् जन्म हारितम्। टीकार्थ :
हे शिष्य ! जो दुर्लभ मनुष्यभव पाकर भी जैनधर्म धारण नहीं करता है वह जीव किसके समान है ? इस संसार में वह जीव दीपक को अपने हाथ में लेकर कुएं में गिरता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
अरे मोही जीव ! यदि तुम जैनधर्म का आदर नहीं करते हो तो तुमने मनुष्यभव यूँ ही नष्ट कर दिया है। किस कारण से ? दिषयों की आसक्ति से, आशा और तृष्णा के द्वारा तुम्हारा मनुष्यजन्म हरण किया जायेगा। भावार्थ:
जो जीव मनुष्यभव को पाकर भी जैनधर्म को धारण नहीं करता है, वह दीपक को हाथ में लेकर कुएँ में गिरने वाले मनुष्य की तरह मूर्ख है। अतएव हे मोही! तू विषयों में आसक्त होकर अपने जीवन को ज गवाँ । धर्माचरण के द्वारा इस भव को सफल बना । यदि यह भव विनष्ट हो गया तो उसकी पुनः प्राप्ति होना अतिकठिन है।