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________________ सोपचासिया ___धर्म को धारण करने की प्रेरणा दुक्खेहि मणुयजम्मं संपजइ मूढ अत्थ संसारे। इउ जाणिऊण गिण्हह किंचिवि थोवं च संबलयं ॥६॥ अन्वयार्थः(मूढ) हे मूर्ख ! (अत्थ) इस (संसारे) संसार में (दुक्खे हि) कष्ट से (मणु यजम्म) मनुष्य भव की (संपज्जइ) प्राप्ति होती है (इउ) ऐसा (जाणिऊण) जानकर (किंचिवि) कुछ भी (संबलयं) सम्बलरूप (च) और (थोवं) कुछ (गिव्हरु) ग्रहण कर । संस्कृत टीका : रे मूळ जीव! अत्र संसारे त्वया महता दुःखेन-अतिकण्टेन नृजन्मप्राप्तम् , परन्तु जन्म प्राप्य त्वया किंचिद ग्रहणीयम् । किं ग्रहणीयम् ? धर्मसारं गृहीतव्यम् । अहो भव्य ! यथा कश्चित्पुरुषः पथि मार्गे ग्रामान्तरं गच्छन्सन् संवलेन विना सुखी न भवति। टीकार्थ : हे मूर्ख जीव ! इस संसार में तूने महान दुःख से अतिकष्ट से मनुष्यभव को प्राप्त किया है परन्तु मनुष्यजन्म को प्राप्त करके तुम्हें कुछ ग्रहण करना चाहिये । क्या बाहण करना चाहिये ? सारभूत धर्म को वाहण करना चाहिये । हे भव्य ! जैसे कोई पुरुष अन्य गाँव को जाते हुये मार्ग में कुछ सम्बल (पाथेय) के बिना सुखी नहीं हो सकता। भावार्थ : ग्रन्थकार दृष्टान्तशैली का उपयोग करते हुए भव्यजीवों को समझाते हैं कि जैसे कोई पथिक मार्ग में पाथेय(रास्ते के लिए भोजन)ले जाता है तो वह सुरती होता है। वैसे ही जीव यदि इस जीवन में धर्म को धारण करता है तो वह परभव में भी सुखी होता है। अतएव हे जीव ! तुम इस महाकठिन मनुष्यभव को पाकर जैनधर्म को धारण करो । धर्म सुख का नियामक हेतु है। हेतु कभी अपने कार्य का विघातक नहीं होता है। यदि तुम शाश्वत सुख की कामना करते हो तो तुम्हें अवश्य ही धर्माचरण करना चाहिये ।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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