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________________ पुनः मनुष्यत्व की प्राप्ति दुर्लभ है अप्पेसिहसि अयाणय माणुसजम्मं च णिप्फलं मूढ । पच्छत्तावे करहसि माणुसजम्मं ण पावहसि ।।५।। अन्वयार्थ :(मूळ) हे मूर्ख ! (माणुसजम्म) मनुष्य जन्म को (अप्पेसिहसि) प्राप्त करके (अयाणय) अज्ञान से (णिप्फलं) निष्फल मत कर । अन्यथा (परछत्तावे) पश्चाताप (करहसि) करेगा (च) और (परन्तु) (माणुसजम्म) मनुष्य जन्म को (ण पावहसि) नहीं पायेगा। संस्कृत टीका : रे मूळ जीव ! बहिरात्मन् ! त्वं बहुवारं नृजन्म न प्रप्नोषि, इति मत्वा नृजन्म निष्फलं मा कुछ। अयोग्यकर्म कृत्वा नृजन्म वृथा मा कुछ। यदि जिनधर्मेण विनाजिलमार्गेण विना नृजन्म निष्फलं करोषि, तर्हि इहामुत्र च पश्चाताएं करोषि, करिष्यसि । पुनः मनुष्यजन्म न प्रापयसि । टीकार्थ : रे मूढ ! रे बहिरात्मन् जीव ! तू अनेक बार मजुष्यजन्म को प्राप्त नहीं कर सकेगा, ऐसा जानकर नरजन्म को निष्फल मत करो 1 अयोग्य कर्मों के द्वारा इस भव को वृथा मत बनाओ । यदि जैनधर्म के बिना, जैनमार्ग के बिना तुम नरजन्म को नष्ट कर दोगे तब इसलोक और परलोक में पश्चाताप करने | पर भी पुजः मनुष्यजन्म को नहीं पा सकोगे । भावार्थ :-- मनुष्यजन्म बार-बार नहीं मिलता । संसार में मनुष्यपर्याय की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । अतएव कवि दयाभाव से आपूरित होकर जीव को सम्बोधित करते हैं कि हे जीव ! तुम इस भव को व्यर्थ में मत गवॉओ । यदि यह अवसर हाथों से निकल गया तो फिर पछताने के बाद भी तुम इस पर्याय को पुनः प्राप्त नहीं कर सकोगे । जैनधर्म की शरण लिये बिना जीवन जीने पर इसलोक और परलोक में पछताना पड़ेगा।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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