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मनुष्यत्व की विफलता लहिऊण मणुयजम्मं जो हारय विसयरायपरिसत्तो ।
मुइऊण अमियरसं गिण्हहि विसमं विसं घोरं ॥४॥ अन्वयार्थ :(मणुयजम्म) मनुष्य भव को (लहिऊ ण) प्राप्त करके (जो) जो कोई (विसयराय) विषयराम की (परिसत्तो) आसक्ति में (हास्य) गवाँता है (वह) (अमियरसं) अमृतरस को (मुहऊण) छोइकर (घोरं) घोर (विसम विसं) विषम विष को (गिण्हहि) ग्रहण करता है। संस्कृत टीका :
हे शिष्य ! अत्र संसारे यो जीवः नरजीवनं प्राप्य विषयरागादिकं कृत्वा गमयति, स जीवः कीदृशो ज्ञातव्यः ? तेन मनुष्येण पीयूषं मुक्त्वा हालाहलं विषं पीतमिति भावः। टीकार्थ :
हे शिष्य | इस संसार में जो जीव मनुष्यजन्म को प्राप्त करके. उसे | विषयों की आसक्ति में व्यतीत करता है. वह मनुष्य कैसा है ? मानों वह मनुष्य पीयूष (अमृत) को छोड़कर हलाहल (विष) को पीता है। भावार्थ :
मनुष्यजन्म अति पुण्योदय से प्राप्त होता है। किन्तु जो मूर्ख उस जन्म में नर से नारायण बनजे का पुरुषार्थ करने की अपेक्षा विषयभोगों में ही अपने जीवन को गवाँता है, वह मूर्ख अमृत को छोड़कर तीव्र गरल(जहर) पी रहा है - ऐसा समझना चाहिये।
मनुष्यपर्याय अमृत की तरह ही अमूल्य और दुष्प्राप्य है । उसे प्राप्त करने के उपरान्त जो उसका समीचीन लाभ नहीं उठाता वह बुद्धिहीन उस लकडहारे की तरह अडानी है. जिसे राजा के द्वारा उपहार में चन्दन का वन प्राप्त हुआ . उसे चन्दन का मूल्य ज्ञात नहीं था । उसने सारे चन्दन के वृक्ष काटकर कोयले बना लिये और कोयले बेचने का व्यापार प्ररंभ किया।