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SOAMAmarodi
सोहचानियाdes | टीकार्थ :
हे जीव ! इस संसार में तुझे मनुष्यभव प्राप्त हुआ है । कैसा जन्म प्राप्त हुआ है ? इन्द्र के समान जन्म मिला है। मूढ़ता से तू इसे अकृतार्थ मत कर । कैसे ? जैसे रत्नाकर (सागर ) में देखने पर बड़े कष्ट से रत्न की प्राप्ति होती [ है वैसे ही संसार में अनन्तकाल भ्रमण करने के बाद मनुष्यजन्म प्राप्त होता है। सरलता से मनुष्यजन्म प्राप्त नहीं होता, ऐसा जानकर तथा मिथ्यात्व को छोड़कर तू जैनधर्म को धारण कर । कहा भी है -
विद्वान जानाति-- अर्यातः - विद्वान विल्हाज को जानता है, ठाणीपुरुष वीर की शूरवीरता को जानता है। वन्ध्या स्त्री को प्रसववेदना की भारी पीड़ा का कभी अनुभव ही नहीं होता। और भी कहा है -
धर्मकल्पद्रुम--- अर्थात् :- इस धर्मरूपी कल्पवृक्ष की जड़ श्रेष्ठ सम्प्रदर्शन है। ज्ञान उसका स्कन्ध है व व्रत ही उस वृक्ष की नालाप्रकार की शाखा व पत्ते हैं। तथा -
येषां न पूजा--- अर्थात् :- जिनमें जिनेन्द्र भगवान की पूजा नहीं है, दान नहीं है, शील नहीं है, तप नहीं है, जप नहीं है, सारभूत धर्म नहीं है और मुरुसेवा नहीं है, वे गृह रूपी रथ के बैल बन कर घूमते हैं। भावार्थ :
जैसे अत्यन्त पुरुषार्थ करने पर समुद्र से रत्नों की प्राप्ति होती हैं उसी प्रकार अनेक भवों के संचित पुण्यकर्मोदय के उदय से मनुष्यभव प्राप्त हुआ है। अतएव हे जीत ! तुम इसे व्यर्थ मत खोओ। धर्म को धारण करके उस जीवन को सफल बनाना चाहिये । अनायास किसी निधि का लाभ होने पर मनुष्य उससे महाल लाभ प्राप्त करना चाहता है, वही प्रयत्न उसे मनुष्यभव की प्राप्ति होने पर करना चाहिये।