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रयणसार लिए १४-१५ ताव दिया सोना कुछ प्रयोजनीय नहीं है । और जिसे सोलहवान स्वर्ण की जब तक प्राप्ति नहीं हुई है तब १४-१५ ताव दिया गया सोना भी प्रयोजनवान होता है। उसी प्रकार जिस जीव को शुद्ध ज्ञायक स्वभाव की प्राप्ति हो गई है उसको व्यवहारनय का प्रयोजन नहीं है; किन्तु जिनको जब तक शुद्ध भाव की प्राप्ति नहीं हुई है, तब तक यथायोग्य प्रयोजनवान् है । व्यवहार को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है, यदि कोई सर्वथा असत्यार्थ जान इसे छोड़ दे, तो शुभोपयोग-पूजा, भक्ति, स्वाध्याय आदि परद्रव्य का आलंबन छोड़ने रूप अणुव्रतं, महाव्रत, समिति आदि का पालन या धारण करना भी छोड़ देगा। क्योंकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिये अशुभोपयोग में ही आकर प्रष्ट हुआ, यथेच्छ प्रवृत्ति करेगा तब नरक-निगोद को प्राप्त कर संसार भ्रमण करेगा। इस कारण शुद्धनय का विषय शुद्ध-आत्मा की प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है।
शुद्ध नय निश्चयनय शुद्ध स्वर्ण-अवस्था के समान जाना हुआ प्रयोजनीय है तथा शुद्ध स्वर्ण अवस्था का अनुभव नहीं होने से उस काल में जाना हुआ व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है । इस प्रकार अपने-अपने समय पर दोनों ही नय कार्यकारी हैं क्योंकि एक व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ-व्यवहार मार्ग का लोप हो जायेगा और तत्त्वनय के बिना वस्तु, का नाश हो जायेगा। अत: हे भव्यात्माओं, यदि तुम जैनधर्म का प्रवर्तन चाहते हो, संसार से तिरना चाहते हो तो निश्चय-व्यवहार दोनों नयों को मत छोड़ो।
भवबीज किं जाणिऊण सयलं, तच्चं किच्चा तवं च किं बहुलं । सम्म-विसोही-विहीणं, णाण-तवंजाण भववीयं ।।१२०।।
अन्वयार्थ ( सयलं तच्च जाणिऊण किं ) सम्पूर्ण तत्त्वों को जानकर क्या लाभ है ( च ) और ( बहुलं तवं किच्चा किं ) बहुत प्रकार के तप करने से भी क्या लाभ है ( सम्म-विसोही विहीणं)