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रयणसार
८९ से शुद्ध सम्यग्दृष्टि धर्म्यध्यान में रत, निष्परिग्रही-बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से रहित और माया, मिथ्या, निदान तीन शल्यों से रहित हैं, वे विशेष पात्र कहे गये हैं । जो गुणों से रहित हैं, वे विपरीत अर्थात् अपात्र हैं।
जिनमें सम्यक्रवादि विशेष मुग है ये जगेन्द्रदेव के द्वारा विशेष पात्र कहे गये हैं 1 जो व्यक्ति उन पात्रविशेष को जानकर सुदान/ विधिवत् निर्दोष दान देता है वह मोक्षमार्ग में रत है।
जो सम्यक्त्व व चारित्र अथवा रत्नत्रय यक्त हैं वे पात्र हैं जो सम्यक्त्व रहित चारित्र सहित हैं वे कुपात्र हैं तथा जो सम्यक्त्व व चारित्र दोनों से रहित हैं वे अपात्र हैं। [ सा.ध. ]
उभयनय-विरोधी णिच्छय-ववहार सरुवं जो रयण-त्तयं ण जाणइ सो। जं कीरइ तं मिच्छा-रूवं सव्वं जिणुद्दिष्ठं ।।११९।।
अन्वयार्थ ( जो ) जो ( णिच्छय-ववहार सरूवं ) निश्चय और व्यवहार स्वरूप वाले ( रयण-त्तय ) रत्नत्रय को (ण) नहीं ( जाणइ ) जानता है ( सो ) वह ( जो ) जो ( कीरइ) करता है ( तं सव्वं ) वह सब (मिच्छा-रूवं ) मिथ्यारूप है ( जिणुद्दिट्ट ) ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
अर्थ-जो निश्चय और व्यवहार स्वरूप रत्नत्रय को नहीं जानता है, वह जो करता है, वह मिथ्यारूप है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
वस्तु के एक अभिन्न और स्वाश्रित- पर निरपेक्ष बैकालिक स्वभाव को जानने वाला निश्चयनय है और भेद रूप वस्तु तथा उसके पराश्रित-पर सापेक्ष परिणमन को जानने वाला व्यवहारनय है।।
लोक में सोने के १६ ताव प्रसिद्ध हैं। जब तक सोना में परसंयोग की कालिमा है, तब तक वह अशुद्ध कहा जाता है । और फिर ताव देतेदेते अन्तिम ताव से उतरते ही सोहलवान शुद्ध स्वर्ण कहलाता है। जिन जीवों को सोलहवान सोने का ज्ञान, श्रद्धान, प्राप्ति हो चुकी है, उसके