________________
रयणसार
सम्यक्त्व की विशुद्धि से रहित ( णाण-तवं-भववीयं जाण ) ज्ञानतप को संसार का बीज जानो। ___अर्थ-सम्पूर्ण-सप्त-तत्वों को जानकर क्या लाभ ? बहुत प्रकार के तप करने से भी क्या लाभ है ? सम्यक्त्व की विशुद्धि से रहित जीव के ज्ञान और तप को संसार का बीज जानो । यहाँ जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को धारण करो | यह सम्यकदर्शन रूपी रत्न उत्तम क्षमादि गुणों तथा सम्यग्दर्शनादि तीनों रत्नों में श्रेष्ठ है और मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है।
संसार की वृद्धि वर्ष-गुण-सील-परीसह-जयं च चरियं तवं छडावसयं । झाण-ज्झयणं सव्वं सम्म विणा जाण भव-वीयं ।।१२१।। ___अन्वयार्थ-(वय-गुण-सील-परीसह-जयं ) व्रत, गुण, शील, परीषह-जय ( चरियं ) चारित्र ( तवं ) तप ( छडावसयं ) षट् आवश्यक (च) और ( झाण-ज्झयणं ) ध्यान-अध्ययन से ( सव्वं ) सब ( सम्म विणा ) सम्यक्त्व के बिना ( भव-वीयं ) संसार के बीज ( जाण ) जानो। ___ अर्थ- अणुव्रत-महाव्रत, अनेक प्रकार के गुण, ७ शील, २२ परीषहों का जय, १३ प्रकार का चारित्र, १२ प्रकार का तप, छह आवश्यक, ध्यान-अध्ययन आदि ये सब क्रियाएँ एक सम्यक्त्व के बिना संसाररूपी वृक्ष का बीज जानो। . ___जो जीव बड़े-बड़े व्रतों को करता है, अनेक गुणों से भी मंडित है, तपस्वी कहलाता है पर सम्यग्दर्शन से रहित है; वह कभी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप इन चार आराधनाओं को प्राप्त नहीं होता है । जैसा कि कहा है
'चेतन चित परिचय बिन जप-तब सबै निरत्थ । कण बिन तुष जिम फटकतै कछु न आवे हत्थ" ||