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रयणसार जिस प्रकार कण रहित तुष को फटकना व्यर्थ है वैसे ही सम्यक्त्व रहित किया गया जप-तप आदि सब व्यर्थ है; संसार का बीज ही है ।
परलोको मारेगा? खाई-पूया-लाहं, सक्का-राई किमि-च्छसे जोई। इच्छसि जइ परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोयं ।। १२२।।
अन्वयार्थ—( जोई ) हे योगी ( जइ परलोयं इच्छसि ) यदि परलोक की इच्छा करता है तो ( खाई-पूया-लाहं ) ख्याति-पूजालाभ ( सक्का-राई ) सत्कार आदि को ( किमि-च्छसे ) इच्छा क्यों करता है ? ( किं ) क्या ( तेहिं ) उनसे ( तुज्झ ) तुझे ( परलोयं ) परलोक मिलेगा [परलोक अच्छा मिलेगा?]
अर्थ-यहाँ आचार्य देव कहते हैं—हे योगी ! तू परलोक सुधारने की इच्छा करता है तो ख्याति-पूजा-लाभ-सत्कार आदि की इच्छा क्यों करता है, क्या इस प्रकार ख्याति-पूजा-लाभ-सत्कार की भावना करते हुए तेरा परलोक सुधर सकेगा, परलोक अच्छा मिलेगा? [ नहीं, परलोक बिगड़ेगा ही ]
जिस प्रकार चन्द्रमा यह इच्छा रखकर उदित नहीं होता कि मैं समुद्र को लहरों से भर दूं, पर उसका वैसा स्वभाव ही है कि चन्द्रमा के उदय होते ही समुद्र में लहरें उठने लगती हैं। उसी प्रकार ख्याति-पूजा लाभ की इच्छारहित योगी के गुणों का स्वभाव ही है कि उनका जग में प्रसिद्धि, आदर, पूजा आदि होता है । सूर्य का उदय हुआ है तो प्रकाश फैलेगा ही, फूल आया है तो सुगंधी फैलेगी ही। निर्मल सम्यक्त्व गुण सहित साधु का परलोक सुधरता ही है इसमें कोई संशय नहीं। किन्तु हे योगी ! तू संसार प्रपंच में पड़ा ख्याति-पूजा-लाभ को इष्ट मानता हुआ परलोक सुधारना चाहता है तो तेरा परलोक बिगड़ेगा ही । तू इधर से भी गया उधर से भी गया । जैसे रेत को पेलने से तेल नहीं निकल सकता, जल को मथने से मक्खन नहीं निकल सकता वैसे ही ख्याति-पूजा की भावना से रखने वाले योगी का परलोक कभी भी सुधर नहीं सकता। कहा भी है