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रयणसार
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देह दाह । आत्म अनात्म के ज्ञान ही, जे जे करणी तन करन छीन ।।
उभय भावों को जानकर अपनी शुद्धआत्मा में रुचि करो कम्माद-विहान-सहान गुण जो भाविकण भावेण । णिय-सुद्धप्या रुच्चई तस्स य णियमेण होइ णिव्याणं ।।१२३।।
अन्वयार्थ ( जो ) जो मुनि ( कम्माद विहाव-सहाव गुणं ) कर्मजनित विभाव व कर्मों के क्षय से प्राप्त स्वभाव गुणों को ( भावेण ) भावपूर्वक ( भाविऊण ) भाकर, मनन चिंतन कर ( णिय-सुद्धप्पा ) अपने शुद्धात्मा में ( रुच्चइ ) रुचि करता है ( तस्स य ) उसका ही ( णियमेण ) नियम से ( णिव्वाण ) निर्वाण ( होइ ) होता है ।
अर्थ-जो मुनि कर्मोदय से होने वाले विभाव भाव व कर्मों के क्षय से उत्पन्न स्वाभाविक आत्म गुणों की भावना कर, उनका चिंतन मनन कर, अपनी शुद्ध आत्मा में रुचि करता है उसका ही नियम से निर्वाण होता है।वही नियम से मुक्ति को पाता है। समयसार कलश में आचार्य देव कहते हैं
आत्मस्वभावं परभावभिन्न-मापूर्ण-माद्यन्त विमुक्त-मेकं । विलीन संकल्प-विकल्प-जालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥१०॥ हे योगी ! आत्मा का स्वभाव परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने विभाव इस तरह के परभावों से भिन्न है । जो इसको परभाव से भिन्न प्रकट करता है, वह समस्त रूप से पूर्ण सब लोकालोक को जानने वाले निज स्वभाव को प्रकट करता है, तथा आदि अन्त से रहित ऐसे परपारिणामिक भाव को प्रकट करता है। तभी सब भेदभावों से रहित एकाकार तथा जिसमें समस्त संकल्प-विकल्पों के समूह का विलय/नाश हो गया, ऐसा शुद्धनय प्रकाश रूप होता है।
हे योगी ! द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म आदि पुद्गल द्रव्य में आत्मा की कल्पना रूप संकल्प को और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद की प्रतीति