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रयणसार
रूप विकल्प का त्याग कर निज शुद्धात्मा में सांच करो यही नियम से निर्वाण-प्राप्ति का मार्ग है।
कर्म रहित मुक्तात्मा जानते हैं मूलु-त्तरु-तरु-त्तर दव्वादो भाव-कम्मदो मुक्को। आसव-बंधण-संवार-णिज्जर जाणेड़ किंबहुणा ।।१२४।।
अन्वयार्थ----( मूलु-तरु-तरु-तर ) मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ और उत्तरोत्तर प्रकृति रूप द्रव्यकर्म से ( भाव-कम्मदो) भाव कर्म से ( मुक्को ) मुक्त जीव ( आसव-बंधण-संवर-णिज्जर जाणेइ ) आस्त्रव-बंध-संवर-निर्जरा तत्त्वों को जानता है ( बहुणा किं) बहुत कहने से क्या लाभ है ?
अर्थ-ट्रव्य-कर्म वास्तव में एक हैं, मूल प्रकृतियों की अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का है, उत्तर प्रकृतियाँ मतिज्ञानावरण आदि की अपेक्षा १४८ प्रकार का है तथा परिणामों की विविधता की अपेक्षा संख्यातअसंख्यात, अनन्त प्रकार का है; ऐसे द्रव्यकर्म और राग-द्वेष-मोह-मिथ्या आदि भाव कर्मों से मुक्त जीव/सिद्ध परमात्मा आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तत्त्वों को जानते हैं ।, अधिक कहने से, कोई प्रयोजन नहीं सिद्ध होता। [अलं विस्तरेण]
बंधव मुक्ति के भाव विसय-विरत्तो मुञ्चइ, विसयासत्तो ण मुंचए जोई। बहिरंतर-परमप्पा-भेयं, जाणहि किं बहुणा ।।१२५।।
अन्वयार्थ—( विसय-विरत्तो जोई ) विषयों से विरक्त योगी ( मुञ्चइ ) कर्मों से छूटता है ( विसयासत्तो ) विषयों में आसक्त ( ण ) नहीं ( मुंचए ) छूटता है । ( बहिरंतर-परमप्पा भेयं ) बहिरात्माअन्तरात्मा व परमात्मा के भेदों को ( जाणहि ) जानो ( किं बहुणा ) बहत कहने से क्या लाभ ? १. जाणेह भी पाठ है [ ब प्रति]