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रयणसार
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अर्थ -- विषयो से विरक्त योगी कर्मों से छूटता हैं विषयासक्त कर्मों से बँधता है। हे योगी ! बहिरात्मा अन्तरात्मा व परमात्मा के भेदों को जानो । बहुत कहने से क्या लाभ ?
जिस प्रकार निज स्वभाव के कारण कमलिनी का पत्ता पानी से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार विषयों से विरक्त मुनि/ योगी विषय-वासनाओं में लिप्त न होकर कि कोना है। और कहा भी है-
"रतो बंधदि क्रम्मं मुञ्चदि जीवो विराग संपण्णो" ।
आचार्य देव कहते भी हैं-संसार में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं और वे ही जीवित हैं जो यौवनरूपी गहरे तालाब में गिरकर भी लीला मात्र से उसे पार कर लेते हैं। विषयों के आधीन नहीं होते हैं।
हे योगी ! आत्मा की तीन अवस्थाएँ बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा । आत्मा जब तक मिथ्यात्व अवस्था में हैं तब तक बहिरात्मा हैं, मिथ्यात्व का विनाश होने पर सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरात्मा हैं । तथा ४ घातिया कर्म से रहित अरहंत परमेष्ठी ८ कर्मरहित सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा हैं इनको जानो ।
बहिरात्मा का लक्षण
णिय- अप्प णाण झाण- ज्झयण- सुहा मिय रसायणं पाणं । मोतूण- क्खाण- सुहं, जो भुञ्जइ सोहु बहि रप्या ।। १२६ ।।
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अन्वयार्थ - - ( जो ) जो (णिय अप्प णाण झाण- ज्झयणसुहा मिय- रसायणं पाणं.) अपनी आत्मा के ज्ञान, ध्यान, अध्ययन और सुखरूपी अमृत को ( मोंत्तूण ) छोड़कर ( अक्खाण - सुहं ) इन्द्रिय सुखों को ( भुञ्जइ ) भोगता है ( सो हु ) वह निश्चय से ( बहि-रप्पा ) बहिरात्मा है।
अर्थ - जो जीव अपनी आत्मा के ज्ञान, ध्यान, अध्ययन और शाश्वत सुखीरूपी अमृत को छोड़कर इन्द्रिय सुखों को भोगता है, वह निश्चय से बहिरात्मा है।