________________
९६
रयणसार
मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत तत्त्वों का जैसा स्वरूप जिनदेव ने कहा है, उसको वैसा न मानने वाला मिध्यादृष्टि जीव दुखदाई इन्द्रिय सुखों को सुखदाई समझकर आत्मानन्द को तो दूर से ही छोड़ता है और आत्मा के हितकारी जान वैराग्य, ध्यान, वैराग्य आदि पदार्थों को अहितकारी जान उनमें अरुचि और द्वेषरूप प्रवृत्ति करता है। वह विषयों की चाहरूप दावानल में दिन-रात जलता रहता है। अतः आत्मा को खो देता है और आकुलता रहित मोक्ष सुख खोजने का प्रयत्न नहीं करता । इस प्रकार द्रव्य और पर्याय के यथार्थ ज्ञान से रहित जीव बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है ।
इन्द्रिय विषय किंपाक फलवत्
किंपाय फलं पक्कं विस मिस्सिद मोदगिंद- वारुण सोहं । जिव्ह सुहंदिट्टि - पिय, जह तह जाणक्ख सोक्खं पि ।। १२७ ।।
-
अन्वयार्थ – (जह ) जैसे ( पक्कं किंपाय - फलं ) पका हुआ किंपाक फल ( विष मिस्सिद- मोदगिंद- वारुण-सोहं ) विषमिश्रित मोदक / लड्डू, इन्द्रायण फल देखने में सुन्दर होते हैं, जिव्हा को सुख देते है (दिट्टि पिय) देखने में भी प्रिय लगते हैं ( तह ) वैसे ही (अक्ख सोक्खं पि) इन्द्रिय सुखों को भी ( जाण ) जानो ।
अर्थ- जैसे पका हुआ किंपाक फल, विषमिश्रित लड्डू और इन्द्रायण फल ये देखने में सुन्दर होते हैं, जिव्हा को सुख देते हैं, नेत्रों को प्रिय लगते हैं वैसे इन्द्रिय सुखों को भी जानो । आचार्य कहते हैं
यत्सुख तत्सुखाभासो, यदुखं तत्सदञ्जसा ।
भवे लोकाः सुखं सत्यं मोक्ष एवं स साध्यताम् ||४७ प. पं. ।।
हे जीव, संसार में संसार इन्द्रिय विषयों का जो सुख मालूम होता है, वह सुख नहीं हैं, सुखाभास हैं अर्थात् सुख के समान मालूम पड़ता है। इन्द्रिय सुख आकुलता का उत्पादक, विनाशी और पाक के समय दुखकर ही है। वास्तव में सुख नही है जिसके पीछे दुख न हो। कहा भी है
i