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रयणसार
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भोग बुरे भव रोग बढ़ावै, बैरी हैं जग जीके । बेरस होंय विपाक समय अति सेवत लागें नीके । वज्र अगिनि विष से विषधर से ये अधिक दुखदाई । धर्मरतन के चोर चपल अति दुर्गति पंथ महाई ।।वै.भा. ।।११।।
बहिरात्मपने की सामग्री देह-कल गुलं, मिनाह विहान नेटणा रुवं । अप्प-सरूवं भावइ सो चेव हवइ बहि-रप्पा ।।१२८।।
अन्वयार्थ—जो जीव ( देह-कलत्त-पुत्तं ) शरीर, स्त्री, पुत्र ( मित्ताइ ) मित्र आदि तथा ( विहाव-चेदणा रूवं ) विभाव चेतना रूप को ( अप्प-सरूवं ) आत्मा का स्वरूप ( भावइ ) भाता है ( सो चेव ) वह ही ( बहि-रप्पा ) बहिरात्मा ( हवइ ) होता है ।
अर्थ-जो जीव शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि परशरीर/परद्रव्य को तथा राग-द्वेष आदि विभाव, चेतना/विभाव परिणामों को आत्मा का यही स्वरूप ऐसा मानता है वह बहिरात्मा, मिथ्यादृष्टि होता है।
बहिरात्मा/मिथ्यादृष्टि की मान्यता इस प्रकार की होती है - मैं सुखी दुखी मैं रंक-राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग, मूरख प्रवीण ||छ.ढा.२।।
बहिरात्मपने का भाव इंदिय-विसय-सुहाइ सु मूढमई रमइ ण लहइ तच्चं । बहु-दुक्ख-मिदिणचिंतइ, सोचेव हवइ बहि-रणा ।।१२९।।
अन्वयार्थ-( मूढमई ) अज्ञानी जीव ( इंदिय-विसय-सुहाइ सु रमइ ) पंचेन्द्रिय-विषयों के सुखादि में रम जाता है ( बहु-दुक्खमिदि ण चिंतइ ) ये इन्द्रिय सुख बहुत दुःखदायी हैं ऐसा चिंतन नहीं करता ( सो ) वह ( तच्चं ण लहइ ) तत्त्व को प्राप्त नहीं करता और ( सो चेव ) वह ही ( बहि-रप्पा हवइ ) बहिरात्मा होता है ।
अर्थ-जो अज्ञानी जीव पंचेन्द्रिय विषयों के सुखादि में रम जाता