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रयणसार
हैं। ये इन्द्रिय सुख बहुत दुःखदायी है ऐसा चिंतन नही करता अतः वह तत्त्व को प्राप्त नहीं करता वह ही बहिरात्मा होता हैं।
अर्थात् यह जीव अनादिकाल से आत्मस्वरूप से च्युत होकर इन्द्रियों के विषयों में पतित हुआ, पंचेन्द्रिय विषयों को उपकारक समझकर, आत्म तस्व के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाया । आचार्य कहते हैं जब तक इस जीव को चैतन्य स्वरूप का ज्ञान नहीं होता तब तक मूढमति जीव को इन्द्रिय विषय सुंदर, सरस, सुखदाई मालूम पड़ते हैं और यह बहिरात्मा अवस्था रचा-पचा अनन्तकाल तक दुखों को भोगता है । बहिरात्मधने का पुष्टीकरण
जं जं अक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करेड़ बहु- दुक्खं । अप्पाण- मिदि ण चिंतइ, सो चेव हवेइ बहि-रप्पा ।। १३० ।।
अन्वयार्थ (जं जं ) जितने / जो जो ( अक्खाण- सुहं ) इन्द्रियसुख हैं ( तं तं ) वे वे सब ( अप्पाणं ) आत्मा को ( तिव्वं बहुदुक्खं ) तीव्र, बहुत प्रकार के दुःखों को ( करेइ ) देते हैं ( इदि ) इस प्रकार जो ( ण चिंतइ ) चिंतन नहीं करता ( सो चेव ) वह ही ( बहिरप्पा ) बहिरात्मा (हवेइ ) होता है ।
अर्थ संसार में जितने भी इन्द्रिय सुख हैं, वे सब आनन्द के स्वामी आत्मा को नाना प्रकार के तीव्र दुःखों को देने वाले हैं, आत्मसुख के घातक हैं जो जीव इस प्रकार का विचार नहीं करता; वह बहिरात्मा है।
आचार्य देव कहते हैं मोह के उदय से जीवों की बुद्धि ऐसा विपरीत परिणमन होता है कि बहिरात्मा जीवों को इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण में आने वाले मूर्तिक पदार्थों में ही सुख भासता है। उसे आभ्यंतर आत्मतत्त्व की रुचि या ज्ञान ही नहीं होता। जिस प्रकार धतूरे का पान करने वाले पुरुष को सत्र पदार्थ पीले मालूम पड़ते हैं, उसी प्रकार बहिरात्मा के मोह के उदय में दुःखदायक इन्द्रिय सुख ही सुखद मालूम देते हैं। अत: वह आत्महित का विचार भी कैसे कर सकता है ?