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रयणसार
बहिरात्म जीवों का विषय
जेसि अमेज्झ- मज्झे, उप्पण्णाणं हवेइ तत्थ रुई । तह बहि- रप्पाणं बहि- रिंदिय-विसएसु होइ मई ।। १३१।।
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अन्वयार्थ - ( जेसिं) जैसे ( अमेज्झ-मज्झे ) विष्टा में ( उप्पण्णाणं ) उत्पन्न जीवों की / कीड़ों की ( रुई ) रुचि ( तत्थ हवेइ ) उसी विष्टा में होती हैं ( तह ) उसी प्रकार ( बहि-रप्पाणं ) बहिरात्मा जीवों की ( मई ) बुद्धि ( बहिरिंदिय - बिसएस) बाह्य इंद्रिय विषयों में ( होड़ ) होती है।
अर्थ- जैसे विष्टा में उत्पन्न जीवों की रुचि विष्टा में ही होती है उसी प्रकार बहिरात्मा जीवों की बुद्धि बाह्य इन्द्रिय विषयों में होती हैं । अर्थात् विष्ट का कीड़ा जिस योनि में उत्पन्न होता हैं उसी में प्रेम करने लग जाता हैं वैसे ही बहिरात्मा अनादिकाल से जिस संसार में रचा- पचा है उसी में इन्द्रिय विषयों में प्रेम करता है। उसी में बुद्धि को लगाता है । " जहाँ का कीड़ा ही सुख" ।
बहिरात्मा की विवेकहीनता
पूय सूय- रसाणाणं, खारामिय- भक्ख भक्ख णाणं पि । मणु जाइ जहा मज्झे, बहि रप्पाणं तहा णेयं । । १३२ ।।
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अन्वयार्थ - ( जहा ) जैसे ( मणु जाइ ) मनुष्य जाति ( पूयसूय- रसाणा ) अपवित्र और खाने योग्य रसों में ( खारामिय) क्षार और अमृत में (भक्ख-भक्ख पि) भक्ष्य और अभक्ष्य ( मज्झे पि ) मध्य भी ( णाणं ) विवेक नहीं करती ( तहा ) उसी प्रकार बहि-रप्पाणं ) बहिरात्मा को ( णेय ) जानना चाहिये ।
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अर्थ- जैसे
मनुष्य जाति अपवित्र ( अखाद्य ) और खाद्य रसों, क्षार और अमृत, भक्ष्य और अभक्ष्य के मध्य ( विवेक नहीं करती) उसी प्रकार बहिरात्मा
को जानना चाहिये । वह भी आत्मा, अनात्मा के मध्य विवेक नहीं करता ।