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रयणसार
अन्तरात्मा के लक्षण सिविणे वि ण भुंजइ विसयाई देहाइ भिण्ण-भाव-मई। भुंजइणियप्प-रूवो सिव-सुह-रजो हु मज्झि-मण्यो सो।।१३३॥
अन्वयार्थ-( देहाइ भिण्ण-भाव-मई ) शरीर आदि से भिन्न आत्मा में बुद्धि है जिसकी जो ( सिविणे वि ण विसयाई भुंजइ ) स्वप्न में भी विषयादि को नहीं भोगता हैं । ( णियप्प-रूबो ) आत्मा के निज स्वरूप को ( भुंजइ ) भोगता है।अनुभव करता है ( दु)
और ( सिव-सुह - रत्तो ) शिवसुख में रत है ( सो ) वह ( मज्झिमप्पो ) मध्यम-आत्मा/अन्तरात्मा है।
अर्थ-जो अपनी आत्मा को शरीर आदि परद्रव्यों से भिन्न मानता है, स्वप्न में भी इन्द्रियादि के विषयों को नहीं भोगता है; जो निजात्मा के स्वरूप को भोगता है, उसी का अनुभव करता है, मुक्ति-सुख में रत है; वह मध्यम आत्मा/अन्तरात्मा है। पृज्यपाद स्वामी कहते हैं
न जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः । निग्रहानुग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते ॥६१।। स.स.।। अन्तरात्मा विचार करता है कि जब ये शरीर जड़ है-इसे सुख-दुख का कोई अनुभव नहीं होता और न ये किसी के निग्रह-अनुग्रह को ही कुछ समझता है तब इसमें अपनत्व की बुद्धि धारण करना मूढ़ता ही है। मैं तो ज्ञानी चैतन्य हूँ, ये परद्रव्य मझ से अत्यंत भिन्न हैं। अत: उसकी शरीर के प्रति, विषयों के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है। उसका यह विचार ही उसे शरीर, को वस्त्राभूषणों आदि से अलंकृत, मंडित करने में उदासीन बनाये रखता है तथा विषय-वासनाओं से भी उदासीन बनाये रखता है। अत: वह
हआ शिवसुख को प्राप्त म हो र " आत्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ शिवसुख को प्राप्त में हो रते रहा है।
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