________________
८६
रमणमार
शंका-सम्यग्दृष्टि, देशव्रती व महाव्रती तो दर्शन तथा चारित्रवान हैं अत:
___ पात्र हैं पर शास्त्राभ्यासी व तत्त्वचिंतक पात्र कैसे हो सकते हैं ? समाधान
तत्प्रतिप्रीति चिंतेन येन वार्ताऽपि श्रुता । निश्चित स भवेद् भव्य भावि निर्वाण भाजनः पं. पंचवि. ।।।
जो आत्मा की बात को, जिनागम की वार्ता को भी प्रीति से ध्यान लगा कर सुनता है वह निश्चय से भव्य है, निकट भावी काल में मुक्ति का भाजन होगा। निकट भव्यता की अपेक्षा उनको पात्र कहा है।
मंद कषायी जीव को शास्त्राभ्यास/जिनागम में रुचि होगी तथा तत्त्व चिंतक भी मन्द कषायी ही हो सकता है, कहा भी जाता है -
सर्प डस्यो तब जानिये, रुचिकर नीम चबाय । पाप डस्यो तब जानिये, जिनवाणी न सुहाय ।।
मुनियों की पात्रता उवसम-णिरीह-झाण-ज्झयणाइ महागुणा जहा दिट्ठा । जेसिं ते मुणिणाहा उत्तम-पत्ता तहा भणिया ।।११५।। ___ अन्वयार्थ-( जेसिं ) जिन मुनियों में (उवसम-णिरीह-झाणज्झयगाइ ) उपशम, निस्पृहता, ध्यान, अध्ययन आदि ( महागुणा) महान् गुण ( जहा दिट्ठा ) जैसे देखे गये ( ते ) वे ( मुणिणाहा ) मुनिराज ( तहा ) वैसे ही ( उत्तम-पत्ता ) उत्तम पात्र कहे गये हैं।
अर्थ-जिन मुनियों में उपशम-कषायों की मंदता, निस्पृहता-निरीह वृत्ति/अपेक्षारहित वृत्ति, ध्यान-अध्ययन आदि महान् गुण जैसे देखे गये, वे मुनिराज भी वैसे ही उत्तम पात्र कहे गये हैं। ___पात्र में/मुनिराज में ये उवसम आदि महान् गुणों की जैसी-जैसी वृद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे उनमें पात्रता भी बढ़ती जाती है । गुणों के आधार से पात्रता बढ़ती है।
मोक्षमार्ग में या लोक में गुणों की पूज्यता है, आचार्य कहते हैं