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रयणसार
वि देहो बंदिज्जइ, ण वि कुलो ण वि या जाइसंजुत्तो ।
को दम गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ ॥ २६ ॥ अ.पा.द.पा. ॥ न तो किमी शरीर की पूजा होती है, न कुल/ पितृपक्ष पूजा जाता हैं, ना जाति मातृपक्ष । किन्तु संयम रूप ही पूजा जाता है। जिसमें संग्रम नहीं है वह सुन्दर, स्वस्थशरीरधारी, उत्तमकुल- जाति वाला भी अपूजनीय रहता है | आचार्य कुन्दकुंद स्वामी कहते हैं- "मैं किसी भी गुणहीन की वन्दना नहीं कर सकता हूँ। क्योंकि संयम गुण से भ्रष्ट पुरुष न मुनि ही है न श्रावक ही है, फिर पात्र कैसे ? तात्पर्य यह है कि उपशम आदि उपरोक्त गुणों सहित मुनिराज हो उत्तम पात्र हैं ।
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अज्ञानी का तप
पण वि जाणइ जिण सिद्ध-सरूवं तिविहेण तह णियप्पाणं । जो तिब्वं कुणइ तवं सो हिंडड़ दीह संसारे ।। ११६ । ।
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अन्वयार्थ - ( जो ) जो ( जिण सिद्ध-सरूवं ) जिन / अरहंत देव, सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप को ( तह ) वैसे ही / तथा (णियप्पाणं ) अपनी आत्मा को (वि) भी ( तिविहेण ) बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा रूप तीन भेद से (ण) नहीं ( जाणइ ) जानता है; और ( तिव्वं ) तीव्र घोर ( तवं ) तप ( कुणइ ) करता है ( सो ) वह ( दीह संसारे ) दीर्घ संसार में ( हिंडइ) परिभ्रमण करता है ।
अर्थ - जो जीव अरहंत - सिद्ध- परमेष्ठी के स्वरूप को तथा अपनी आत्मा को बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा रूप तीन भेद से नहीं जानता हैं और तीव्र / घोर तप कायक्लेश, अनशन, ऊनोदर आदि करता है वह दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है। अष्टपाहुड ग्रंथ में आचार्य कहते हैं— बाहिर - संग च्चाओ गिरि-सरि-दरि-कंदराइ आवासो । सयलो पाण- ज्ायणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥ ८७ ॥ भा. प्रा. 11
भाव सम्यक्त्व से रहित अर्थात् पंच परमेष्ठी अर्हत सिद्ध के स्वरूप के ज्ञान रहित अथवा शुद्ध-बुद्धैक- स्वभाव से युक्त निज आत्मा की भावना से च्युत मुनियों का बाह्य परिग्रह का त्याग निरर्थक है, पर्वत के ऊपर