________________
रयणसार
:: भोजन गोष्ट
१ संयोजन दोष १. अप्रमाण दोष १. अंगार दोष १. अध: कर्म दोष = १६+१६+१०। १+१+१+१=४६ दोष।
साथ ही उस भोजन को एक ही बार पूर्ण पेट न भरकर ऊनोदर, यथालब्ध आहार भिक्षा के द्वारा लेना योग्य आहार होता है। उसमें भी रात्रि में नहीं । जब मध्याह्नकाल में सामायिक के समय में दो घड़ी बाकी रह जाय, भिक्षा का समय जान सिंहवृत्ति-से पीछी-कमंडलु को बाँयें हाथ में रखकर, दाहिना हाथ कंधे पर रख चर्या को जाना चाहिये।
आहार के समय खड़े होने का नियम-मुनियों को अपने दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर खड़ा होना चाहिये । अपने दोनों हाथों को छिद्ररहित बना लेना चाहिये । तदनंतर सिद्धभक्ति कर नवधा भक्ति से दिया गया पापरहित प्रासुक आहार ग्रहण करना चाहिये। ___आहार में रसों की इच्छा नहीं होनी चाहिये। भोजन मद्य-मांस-मधु से रहित होना चाहिये । इस प्रकार मुनिराज आचारशास्त्र में कही गई पिण्डशुद्धि के क्रम से समस्त अयोग्य आहार को छोड़ते हुए आहार लेते हैं ।
पात्रों के अनेक प्रकार अविरद-देस-महव्वय, आगम-रुइणं वियार-तच्चण्हं । पत्तंतरं सहस्सं, णिद्दिष्टुं जिणवरिं देहिं ।।११४।।
अन्वयार्थ ( अविरद-देस-महव्वय ) अविरतसम्यग्दृष्टि, देशव्रती, महाव्रती ( आगम-रुइणं ) जिनागम में रुचि रखने वाले (वियार-तच्चण्हं ) तत्त्वों के विचारकों की अपेक्षा ( जिणवरिंदेहिं ) जिनेन्द्र देव ने ( पत्तंतरं सहस्सं ) हजारों प्रकार के पात्र ( णिद्दिटुं)
अर्थ-जिनेन्द्र देव ने अविरतसम्यग्दृष्टि, देशव्रती श्रावक, महाव्रतमुनिराज, शास्त्राभ्यासी/जिनागम में रुचि रखने वाले तथा तत्त्व चिंतकों की अपेक्षा हजारों प्रकार के पात्र कहे हैं।