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बहु-दुक्ख-भायणं कम्म-कारणं भिण्ण-मप्पणो देहं । तं देहं धम्माणुट्ठाण-कारणं चेदि पोसए भिक्खू ।।११०।।
अन्वयार्थ ( देहं ) शरीर ( रस ) ( रुहिर ) रुधिर ( मंसमेदट्ठिसुकिल-मल-मूत-पूय-किमि बहुलं ) मांस, मेदा, अस्थि, शुक्र, मल, मूत्र, पूय/पीव, कृमि/कीड़ों से भरा हुआ ( दुग्गंध ) दुर्गंधयुक्त ( असुइ ) अपवित्र ( चम्म-मयं ) चर्ममय ( अणिच्चं ) अनित्य ( अचेयणं ) अचेतन ( पडणं ) नाशवान ( बहु-दुक्ख-भायणं ) अनेक प्रकार के दु:खों का भाजन ( कम्म-कारणं ) कर्मों के आस्रव का कारण ( अप्पणो भिण्णं ) आत्मा से भिन्न है ( तं ) उस शरीर को ( धम्माणुट्ठान-कारणं ) धर्मानुष्ठान का कारण है ( चेदि ) ऐसा जानकर ( भिक्खू ) भिक्षु/साधु ( पोसदे ) पोषण करते हैं।
अर्थ—यह शरीर रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, शुक्र, मल-मूत्र, पूष/पीव और असंख्यात कीड़ों से भरा हुआ है । दुर्गन्ध युक्त है, अपवित्र, चर्ममय, अनित्य, अचेतन, नश्वर, अनेक प्रकार के दुक्खों का कारण, पापों का द्वार और आत्मा से भिन्न है । परन्तु यह धर्मानुष्ठान का कारण है । यह मानकर साधु उस देह का पालन-पोषण करता है ।
___"स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय पवित्रिते" (र.श्रा.)
मानव देह स्वभाव से अपवित्र होने पर रत्नत्रय से पवित्र है । अत: सज्जन पुरुष रत्नत्रय की पूर्णता के लिए इसका पोषण करते हैं।
युक्ताहारी साधु ही दुखों के क्षय में समर्थ संजम-तव-झाण-ज्झयण-विणाणए गिहए पडिग्गहणं । वज्जइ गिण्हइ भिक्खूण सक्कदे वज्जिदुंदुक्खं ।।११।।
अन्वयार्थ- ( भिक्खू) भिक्षु ( संजम-तव-झाण-ज्झयणविणाणए ) संयम, तप, ध्यान, अध्ययन व विज्ञान के लिए वच्चइ पाठ भी है [ब प्रति]