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रयणसार
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अन्वयार्थ ( उदरग्गिय-समण-मक्ख-मक्खण-गोयार-सब्भपूरणभमरं ) उदराग्नि शमन अक्ष-प्रक्षण, गोचारी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरो वृत्ति और ( तप्पयारे ) उसके प्रकारों को ( णाऊण ) जानकर ( भिक्खू ) साधु ( णिच्चेवं ) नित्य ही ( भुञ्जए ) आहार ग्रहण करें।
अर्थ-साधु हमेशा ही उदराग्नि शमन, अक्ष-भ्रमण, गोचरी, शुभ्रपूरण और भ्रामरी वृत्ति और उसके प्रकारों का जानकर विधिवत् ही आहार ग्रहण करें। ___ आचार्यों ने मूलाचार आदि अनगार चर्या संबंधी ग्रंथों में आहार चर्या की ५ विधियाँ कही हैं-- १. उदराग्नि शमन-~जितने आहार से उदर की अग्नि शान्त हो जाए
उतना ही आहार लेना उदराग्नि शमन चर्या है। २.अक्षम्रक्षण—जिस प्रकार गाड़ी चलाने के उसकी धुरी पर तेल ( ग्रीस )
तेल डालते हैं उसी प्रकार शरीर रूपी गाड़ी को मोक्ष नगर पहुँचाने
के लिए आहार लेना अक्षम्रक्षण चर्या है। ३. गोचरी-जैसे गाय के चारा डालने पर गाय की दृष्टि चारे पर रहती है।
चारा डालने वाले की सुन्दरता या आभूषण पर नहीं, वैसे ही जिस चर्या में मुनि की दृष्टि आहार पर रहती है, देने वाले के
सौन्दर्य, आभूषण, गरीबी, अमीरी पर नहीं, वह गोचरी है। ४. श्वभ्रपूरण...-जैसे गड्ढे को मिट्टी, कूड़ा-कचरा आदि किसी से भी भरा
जाता है वैसे उदर/पेटरूपी गड्डे को सरस-नीरस चाहे जैसे भी
शुद्ध आहार से भर देना शुम्रपूरण है। ५. भ्रामरी-जैसे भ्रमर फूलों को कष्ट न देते हए रस ग्रहण करता है वैसे
ही साधु, गृहस्थ को कष्ट न देते हुए आहार ग्रहण करते हैं, वह भ्रामरी चर्या है।
धर्मानुष्ठान के योग शरीर पोषण के योग्य है रस-रुहिर-मंस-मेदट्ठि सुकिल-मल-मूत-पूय-किमि-बहुलं । दुग्गंध-मसुइ-चम्ममय-मणिच्च-मचेयणं पडणं ।।१०९।।