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रखणसार
से नहीं छुड़ा दे, कहीं अच्छे कार्यो/धर्म कार्यों में नहीं फंसा दें, ऐसा विचार कर वे धर्मात्मा को दूर से ही देखकर चिल्लाने लगते हैं, कलह शुरू कर देते हैं। फलत: धर्मात्मा जीव दूर से ही अपना रास्ता खोज निकल जाता है।
मोक्षमार्गी साधु भुंजेइ जहा-लाह, लहेइ जइ णाण- संजम-णिमित्तं । झाण-ज्झयण-णिमित्तं, अणयारो मोखमग्ग-रओ ।।१०७।। ___ अन्वयार्थ जो ( जइ ) योगी ( णाण-संजम-णिमित्तं ) ज्ञान
और संयम के निमित्त ( झाण-ज्झयण-णिमित्तं ) ध्यान-अध्ययन के निमित्त ( जहा-लाहं ) यथालाभ जो प्राप्त हो गया ( लहेइ ) ग्रहण करते हैं वे ( अणयारो ) अनगार/ साधु ( मोक्खमग्ग-रओ ) मोक्षमार्ग में रत हैं।
अर्थ-जो योगी ज्ञान और संयम की सिद्धि के लिए , ध्यान-अध्ययन की प्राप्ति के लिए अपनी विधि अनुसार यथालाभ जो भी प्राप्त हो गया, ग्रहण कर लेते हैं--वे योगी/मुनिराज मोक्षमार्ग में रत हैं।
मुनिराज छह कारणों से आहार करते हैं- १. संयम रक्षा २. शरीरस्थिति ३. क्षुधा नाश ४. वैय्यावृत्य ५. स्वाध्याय और ६. ध्यान । मोक्षमार्ग में रत साधु इन कारणों से आहार लेता हुआ भी मोक्षमार्गी है ।[ मू.चा.प्र.) ___मुनि छह कारणों से आहार लेते हैं- १. क्षुधा शमन हेतु २, वेदनाशमन हेतु ३. छट् आवश्यक क्रिया पालन हेतु ४. संयम की रक्षार्थ ५. प्राणों की रक्षार्थ और ६. धर्म की रक्षार्थ । तथा मुनि छह कारणों से ही आहार का त्याग करते हैं-१. आतंक होने पर २. उपसर्ग आने पर ३. ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ ४. प्राणी- दया के लिए ५. तप के लिए और ६. संन्यास के लिए [ मू.चा.] ।
मुनि-चर्या के विभिन्न प्रकार उदरग्गिय-समण-मक्ख-मक्खण-गोयार-सब्भपूरण-भमरं । णाऊण तप्पयारे, णिच्चेव भुञ्जए भिक्खू ।।१०८।।