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रयणसार
८३ ( पडिग्गहण ) प्रतिग्रहण/आहार ( गिहए ) ग्रहण करता है-बह यदि ( वज्जइ ) इन कारणों को छोड़कर ( गिण्हइ ) आहार ग्रहण करता है तो ( दुक्खं वज्जिदूं ) संसार के दु:खों को छोड़ने के लिए ( सक्कदे ण ) समर्थ नहीं हो सकता है।
अर्थ--मुनिराज संयम, तप, ध्यान, अध्ययन और विशेष ज्ञान की प्राप्ति के लिए आहार ग्रहण करते हैं । यदि वे इन कारणों से भोजन ग्रहण नहीं करते हैं तो संसार के दुखों को छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हो सकते हैं।
यहाँ यह भाव है कि साधु इस लोक व परलोक की इच्छा को छोड़कर क काम-क्रोधादि के वशीभूत न हो, इस शरीर को प्रदीप के समान जानते हैं, अत: शरीररूपी दीपक के लिए आवश्यक तैल रूप ग्रास मात्र को देते हैं, जिससे शरीररूपी दीपक बुझ नहीं जावे । वे ही साधु युक्ताहारी हैं । परन्तु जो साधु शरीर की पुष्टि करने के निमित्त भोजन करते हैं वे युक्ताहारी नहीं हैं। तथा युक्ताहारी न होने से संसार के दुःखों से छूटने में भी समर्थ नहीं हैं ।
जो श्रमण आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव भाते हैं और उसकी सिद्धि के लिए एषणा दोष शून्य अन्न आदि की भिक्षा आचरते हैं, वे आहार करते हुए भी अनाहारी हैं क्योंकि युक्ताहारित्व के कारण उनके स्वभाव तथा परभाव के निमित्त से बन्ध नहीं होता, इसलिये वे साक्षात् अनाहारी ही हैं [प्रवचनसार, पृ० ५३९] ।
वह साधु है क्या ? कोहेण-य कलहेण य, जायण-सीलेण संकिलेसेण । रुहेण य रोसेण य, भुंजइ किं तिरो भिक्खू ।।११२।।
अन्वयार्थ जो साधु ( कोहेण य ) क्रोध से ( कलहेण य ) कलह से ( जायण सीलेण ) याचना करके ( संकिलेसेण ) संक्लेश से ( रुद्देण य ) रौद्र परिणामों से तथा ( रोसेण य ) रोस/रुष्ट होकर ( भुंजइ ) आहार ग्रहण करता है वह ( किं भिक्खू ) क्या भिक्षु/ साधु है ? वह तो-( वितरो ) व्यन्तर है।